गीता, अनुवाद और टिप्पणी-३ भध्याय । कमंद्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । सुरेश्वराचार्य का " नैष्कर्म्यसिद्धि " नामक इस विषय पर एक ग्रंथ भी है। तयापि, नैष्कम्यं के ये तत्व कुछ नये नहीं हैं। न केवल सुरेश्वराचार्य ही के किन्तु मीमांसा और वेदान्त के सून बनने के भी, पूर्व से ही उनका प्रचार होता मा रहा है। यह बतलाने की कोई सावश्यकता नहीं, कि कर्म बंधक होता ही है। इसलिये पारे का उपयोग करने के पहले उसे मार कर जिस प्रकार वैध लोग शुद्ध कर लेते हैं, उसी प्रकार कर्म करने के पहले ऐसा उपाय करना पड़ता है कि जिससे उसका बन्धकत्व या दोप मिट जाय । और, ऐसी युक्ति से कर्म करने की स्थिति को ही नैष्कर्म्य ' कहते हैं । इस प्रकार बन्धकत्वरहित कर्म मोक्ष के लिये बाधक नहीं होते, अतएव मोक्ष शास्त्र का यह एक महत्त्वपूर्ण प्रभ है, कि यह स्थिति कैसे प्राप्त की जाय ? मीमांसक लोग इसका यह उत्तर देते हैं, कि नित्य और (निमित्त होने पर) नैमित्तिक कर्म तो करना चाहिये, पर काम्य और निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिये । इससे कर्म का बन्धकत्व नहीं रहता और नेकावस्या सुलम रीति से प्राप्त हो जाती है। परन्तु वेदान्तशास्त्र ने सिद्धान्त किया है कि मीमांसकों की यह युक्ति गलत है। और इस बात क विवेचन गीतारहस्य के दसवें प्रकरण (पृ. २७४) में किया गया है। कुछ और लोगों का कथन है, कि यदि कर्म किये ही न जावे तो उनसे बाधा कैसे हो सकती है? इसलिये, उनके मतानुसार, नष्कर्य अवस्था प्राप्त करने के लिये सब कर्मों ही को छोड़ देना चाहिये । इनके मत से कर्मशून्यता को ही नैष्कर्म्य' कहते हैं। चौथे श्लोक में बतलाया गया है, कि यह मत ठीक नहीं है, इससे तो सिद्धि अर्थात मोक्ष भी नहीं मिलता; और पांचवें श्लोक में इसका कारण भी पतला दिया है। यदि हम कर्म को छोड़ देने का विचार करें, तो जब तक यह देश है तब तक सोना, यैठना इत्यादि कर्म कभी रुक ही नहीं सकते (गी. १५.६ और १८. ११), इसलिये कोई भी मनुष्य कर्मशून्य कभी नहीं हो सकता। फलतः कर्मशून्यरूपी नैष्कर्म्य असम्भव है । सारांश, कर्मरूपी बिच्छू कभी नहीं मरता । इसलिये ऐसा कोई उपाय सोचना चाहिये कि जिससे वह विपरहित हो जाय । गीता का सिद्धान्त है कि कमों में से अपनी आसक्ति को हटा लेना ही इसका एक मात्र उपाय है। आगे अनेक स्थानों में इसी उपाय का विस्तार- पूर्वक वर्णन किया गया है । परन्तु इस पर भी शङ्का हो सकती है, कि यद्यपि कर्मों को छोड़ देना नष्कम्यं नहीं है, तथापि संन्यासमार्गवाले तो सब कमी का संन्यास अर्थात त्याग करके ही मोक्ष प्राप्त करते हैं, अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिये कर्मों का त्याग करना आवश्यक है । इसका उत्तर गीता इस प्रकार देती है, कि संन्यासमार्गवालों को मोल तो मिलता है सही, परन्तु वह कुछ उन्हें कर्मों का त्याग करने से नहीं मिलता, किन्तु मोक्ष-सिद्धि उनके ज्ञान का फल है । यदि केवल कर्मों का त्याग करने से ही मोच-सिद्धि होती हो, तो फिर पत्थरों को गी.र. ८२
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