६५० गीतारहस्य अथदा कर्मयोगशास्त्र। इंद्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६॥ यस्त्विद्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कमद्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥ भी मुक्ति मिलनी चाहिये! इससे ये तीन वात सिद्ध होती हैं:-(१) नेप्कार्य कुछ कर्मशून्यता नहीं है, (२) कर्मों को विलकुल त्याग देने का कोई कितना भी प्रयत्न क्यों न करे, परन्तु वे छूट नहीं सकते, और (e) कमों को त्याग देना सिदि प्राप्त करने का उपाय नहीं है। यही वातें ऊपर के श्लोक में बतलाई गई है। जब ये तीनों वात सिद्ध हो गई, तव अठारहवें अध्याय के कथनानुसार सिदि' की (देखो गी. १८. १८ और ४६ प्राप्ति के लिये यही एक मार्ग शेष रह जाता है, कि कर्म करना तो छोड़े नहीं, पर ज्ञान के द्वारा आसक्ति का क्षय करके सब कर्म सदा करता रहे । क्योंकि ज्ञान मोक्ष का साधन है तो सही, पर कर्मशून्य रहना भी कमी सम्भव नहीं, इसालेये कमी के बन्धकत्व (बन्धन) को नष्ट करने के लिये आसक्ति छोड़ कर उन्हें करना आवश्यक होता है। इसी को कर्मयोग कहते हैं, और अब बतलाते हैं कि यही ज्ञान-कर्मसमुच्चयात्मक मार्ग विशंप योग्यता का, अर्थात् श्रेष्ट है-] (६) नो मूढ़ (हाय पैर आदि) कर्मेन्द्रियों को रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन किया करता है, उसे मिथ्याचारी अर्थात दांभिक कहते हैं। (७) परन्तु हे अर्जुन ! उसकी योग्यता विशेष अर्थात् श्रेष्ठ है कि जो मन से इन्द्रियों का आकलन करके, (कवन) कर्मेन्द्रियों द्वारा अनासक्त बुद्धि से 'कर्मयोग' का प्रारम्म करता है। । [पिछले अध्याय में जो यह बतलाया गया है कि कर्मयोग में कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है (गी. २. ४८), उसी का इन दोनों श्लोकों में स्पष्टीकरण किया गया है । यहाँ साफ साफ कह दिया है, कि जिस मनुष्य का मन तो शुद्ध नहीं है, पर केवल दूसरों के भय से या इस अभिलापा से कि दूसरे मुझे भला कह, केवल बाझेन्द्रियों के व्यापार को रोकता है, वह सच्चा सदाचारी नहीं है, वह ढोंगी है। जो लोग इस वचन का प्रमाण देकर, कि "कलौ कर्ता च लिप्यते"- कलियुग में दोप बुद्धि में नहीं, किन्तु कर्म में रहता है-यह प्रतिपादन किया करते हैं कि बुद्धि चाहे जैसी हो, परन्तु कर्म बुरा न होउन्हें इस श्लोक में चर्णित गीता के तस्व पर विशेष ध्यान देना चाहिये । सातवें श्लोक से यह बात प्रगट होती है, कि निष्काम बुद्धि से कर्म करने के योग को ही गीता में कर्मयोग' कहा है। संन्यासमार्गीय कुछ टीकाकार इस श्लोक का ऐसा अर्थ करते हैं, कि यद्यपि यह कर्मयोग छ लोक में बतलाये हुए दामिक मार्ग ले श्रेष्ठ है, तथापि यह संन्यासमार्ग से श्रेष्ठ नहीं है । परन्तु यह युक्ति साम्प्रदायिक आग्रह की है, क्योंकि न केवल इसी श्लोक में, वरन् फिर पाँचवें अध्याय के प्रारम्भ में और अन्यत्र भी, यह सष्ट कह दिया गया है कि संन्यासमार्ग से भी कर्मयोग अधिक
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