गतिा, अनुवाद और टिप्पणी- ३ अध्याय । सहयशाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥११॥ इष्टान्भोगान्हि वो देवां दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भुंक्त स्तेन एव सः॥१२॥ यज्ञ की व्याख्या करते समय किया गया है (देखो गी. १७. ११ और २८.६)। इस श्लोक का भावार्थ यह है कि इस प्रकार सत्र कर्म यज्ञार्य और सो भी फलाशा छोड़ कर करने से, (१) वेमीमांसकों के न्यायानुसार ही किसी भी प्रकार मनुष्य को बद्ध नहीं करते, क्योंकि वे तो यज्ञार्थ किये जाते हैं और (२) उनका स्वर्ग-प्राप्तिरूप शास्त्रोक एवं अनित्य फल मिलने के बदले मोक्ष प्राप्ति होती है, क्योंकि वे फलाशा छोड़ कर किये जाते हैं। आगे १६ वै श्लोक में और फिर चौथे अध्याय के २३ ३ श्लोक में यही अर्थ दुवारा प्रतिपादित हुआ है । तात्पर्य यह है कि, मीमांसकों के इस सिद्धान्त-" यज्ञार्थ कर्म करना चाहिये क्योंकि वे धन्धक नहीं होते" --में भगवद्गीता ने और भी यह सुधार कर दिया है कि 1" जो कर्म यज्ञार्य किये जावें, उन्हें भी फलाशा छोड़ कर करना चाहिये । " किन्तु इस पर भी यह शंका होती है कि, मीमांसकों के सिद्धान्त को इस प्रकार सुधा- रने का प्रयत्न करके यज्ञ-याग आदि गाईस्य्यवृत्ति को जारी रखने की अपेक्षा, क्या यह अधिक अच्छा नहीं है कि कर्मों की झझट से छूट कर मोक्ष प्राप्ति के लिये सब कर्मों को छोड़ छाड़ कर संन्यास ले ले ? भगवद्गीता इस प्रश्न का साफ यही एक उत्तर देती है कि नहीं। क्योंकि यज्ञ-चक्र के बिना इस जगत के व्यवहार जारी नहीं रह सकते। अधिक क्या कहें, जगत के धारण-पोषण के लिये बमा ने इस चक्र को प्रथम उत्पन्न किया है। और जबकि जगत की सुस्थिति या संग्रह ही भगवान् को इष्ट है, तब इस यज्ञ-चक्र को कोई भी नहीं छोड़ सकता। श्रव यही प्रर्य अगले श्लोक में बतलाया गया है। इस प्रकरण में, पाठकों को स्मरण रखना चाहिये कि 'यज्ञ' शब्द यहाँ केवल श्रौत यज्ञ के ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, किन्तु उसमें स्मार्त यज्ञों का तथा चातुर्वण्र्य आदि के यथाधिकार सब व्यावहाँ- रिक कर्मों का समावेश है।] (१०) प्रारम्भ में यज्ञ के साथ साथ प्रजा को उत्पन करके ब्रह्मा ने (उनसे) कहा, "इस (यज्ञ) के द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो; यह (यज्ञ) तुम्हारी कामधेनु होवे अर्थात् यह तुम्हारे इच्छित फलों को देनेवाला होवे। (११) तुम इस यज्ञसे देव- वाओं को संतुष्ट करते रहो, (और) वे देवता तुम्ह सन्तुष्ट करते रहें। (इस प्रकार) परस्पर एक दूसरे को सन्तुष्ट करते हुए (दोनों) परम श्रेय अर्थात् कल्याण प्राप्त कर लो"(१२) क्योंकि, यज्ञ से संतुष्ट होकर देवता लोग तुम्हारे इच्छित (सब)
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