गीता, अनुवाद और टिप्पणी -३ अध्याय । अन्नाइवान्त भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यशे प्रतिष्ठितम् ।।१५॥ पाए भक्षण करता है। यज्ञ करने पर जो शेष रह जाता है उसे 'अमृत' और दूसरों के भोजन कर चुकने पर जो शेष रहता है (भुक्तशेप) उसे विषस' कहते हैं (मनु. ३. २८५)। और, भजे मनुष्यों के लिये यही प्रा विहित कहां गया है (देखो. गो. ४.३१)। अब इस बात का और भी स्पष्टीकरण करते हैं कि यज्ञ आदि कर्म न तो केवल तिल और चावलों को आग में झोंकने के लिये ही हैं और न स्वर्ग:प्राप्ति के लिये ही; परन् जगत् का धारण-पोषण होने के लिये उनकी बहुत आवश्यकता है अर्थात् यज्ञ पर ही सारा जगत् अवलाम्बत है-] (१४) प्राणिमात्र की उत्पत्ति अन से होती है, पस पर्जन्य से उत्पन होता है, पर्जन्य पश से उत्पन होता है और यज्ञ की उत्पत्ति कर्म से होती है। i [मनुस्मृति में भी मनुष्य की और उसके धारण के लिये आवश्यक भन्न की उत्पत्ति के विषय में इसी प्रकार का वर्णन है। मनु के श्लोक का भाव यह है "यज्ञ की भाग में दी हुई पाहुति सूर्य को मिलती है और फिर सूर्य से (अर्थात् परम्परा द्वारा यज्ञ से ही) पर्गन्य उपजता है, पर्जन्य से अन्न, और अन्न से प्रजा खपत होती है" (मनु. ३.७६) यही श्लोक महाभारत में भी है (देखो ममा. शां. २६२. ११)। तैत्तिरीय उपनिपद् (२.१) में यह पूर्वपरम्परा इससे भी पीचे हटा दी गई है और ऐसा म दिया गया है. प्रथम परमात्मा से आकाश हुआ और फिर कम से वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई; पृथ्वी से ओषधि, प्रोपधि से अन्न, और थन से पुरुष उत्पन्न हुभा।" भितएव इस परम्परा के अनुसार, प्राणिमात्र की कर्मपर्यन्त बतलाई हुई पूर्वपर- परा को, अब कर्म के पहले प्रकृति और प्रकृति के पहले अक्षर ब्रह्म-पर्यन्त पहुँचा कर, पूरी करते हैं- (१५) कर्म की उत्पति ग्रह से अर्थात् प्रकृति से हुई है, और यह ब्रह्म अवर से अर्थात् परमेश्वर से हुमा है । इसलिये (यह समझो कि) सर्वगत ब्रह्म ही यज्ञ में सदा अधिष्ठित रहता है। [कोई कोई इस श्लोक के ब्रह्म' शब्द का अर्थ 'प्रकृति ' नहीं समझते, वे कहते हैं कि यहाँ ब्रह्म का अर्थ 'वेद' है। परन्तु 'ब्रह्म' शब्द का 'वेद' मर्थ करने से यद्यपि इस वाश्य में आपत्ति नहीं हुई कि " ब्रह्म अर्थात् वेद परमेश्वर से हुए हैं" तथापि वैसा अर्थ करने से "सर्वगत ग्रह यज्ञ में है इसका अर्थ ठीक ठीक नहीं लगता। इसलिये " ममं योनिमहर ब्रह्म" (गी. १४.३) श्लोक में " प्रस" पद का जो प्रकृति अर्थ है, उसके अनुसार रामानुज-
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