पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९५

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६५६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिद्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥ $$ यस्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥१७॥ नैव तस्य कृतेनार्यो नाकृतेनेह कश्चन । माप्य में यह अर्थ किया गया है कि इस स्थान में भी 'ब्रह्म' शब्द से जगत् की मूल प्रकृति विवक्षित है और यही अर्थ इमें भी ठीक मालूम होता है। !इसके सिवा महाभारत के शान्तिपर्व में, यज्ञप्रकरण में यह वर्णन है कि "अनु- यह जगत्सर्वं यज्ञश्वानुजगत्सदा" (शां. २६७. ३४)-अर्थात् यज्ञ के पीछे जगत् ई और जगत के पीछे पीछे यज्ञ है। ब्रह्म का अर्थ 'प्रकृति' करने से इस वर्णन का भी प्रस्तुत लोक से मेल हो जाता है, क्योंकि जगत् ही प्रकृति है। गीतारहस्य के सातवें और आठवें प्रकरण में यह बात विस्तारपूर्वक वतलाई गई है कि परमेश्वर से प्रकृति और त्रिगुणात्मक प्रकृति से जगत् के सब कर्म कैसे निप्पन होते हैं। इसी प्रकार पुरुषसूक्त में भी यह वर्णन है कि देवताओं ने प्रथम यज्ञ करके ही सृष्टि को निर्माण किया है।] (६) हे पार्थ! इस प्रकार (जगत् के धारणार्य) चलाये हुए कर्म या यज्ञ के चक्र को जो इस जगत् में आगे नहीं चलाता, उसकी प्रायु पापरूप है उस इन्द्रिय सम्पट का (अर्थात देवताओं को न देकर,स्वयं व्रमोगकरनेवाले का)जीवन व्यर्थ है। i [स्वयं ब्रह्मा ने ही-मनुष्यों ने नहीं- लोगों के धारण-पोषण के लिये यक्ष- मय कर्म या चातुर्वण्य-वृत्ति उत्पन्न की है। इस सृष्टि का क्रम चलते रहने के लिये (लोक ४) और साथ ही साथ अपना निर्वाह होने के लिये (लोक), इन दोनों कारणों से, इस वृत्ति की आवश्यकता है। इससे सिद्ध होता है कि यज्ञ. |चक्र को अनासक्त बुद्धि से जगत् में सदा चलाते जाना चाहिये । अब यह बात मालूम हो चुकी कि मीमांसकों का या योधर्म का कर्मकाण्ड (यज्ञ-चक्र) गीता. धर्म में अनासक बुद्धि की युक्ति से कैसे स्थिर रखा गया है (देखो गीतार.प्र. 1११. पृ.३४५-३४६)। कई संन्यास मार्गबाले वेदान्ती इस विषय में शङ्का करते हैं कि आत्मज्ञानी पुरुप को जब यही मौज प्राप्त हो जाता है, और उसे जो कुत्र प्राप्त करना होता है वह सब उसे यहीं मिल जाता है, तब उसे कुछ भी कर्म करने की आवश्यकता नहीं है और उसको कर्म करना भी न चाहिये । इस का उत्तर अगले तीन श्लोकों में दिया जाता है।] (१७) परन्तु जो मनुष्य केवल आत्मा में ही रत, मात्मा में ही तृप्त और आत्मा में ही संतुष्ट हो जाता है, उसके लिये (स्वयं अपना) कुछ भी कार्य (शेष) नहीं रह जाता; (11) इसी प्रकार यहाँ अर्थात्, इस जगत् में (कोई काम) करने से या न करने से भी उसका कोई लाभ नहीं होता और सब प्राणियों में