सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीता, अनुवाद और टिप्पणी - ३ अध्याय । ६५६ ss कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।। २० ॥ " "शं अर्थात ज्ञानी पुरुष को कर्म छोड़ने या करने से कोई लाभ नहीं उठाना होता, मतएव वह जो जैसा प्राप्त हो जाय, उसे वैसा किया करता है" (योग. ६. उ. P१९९.)। इसी अन्य के अन्त में, उपसंहार में फिर गीतों के ही शब्दों में पहले कारण दिखलाया है। मम नास्ति कृते नार्थो नाकृते नेह कश्चन । यघामान तिठामि कमगि क आग्रहः। "किसी पात का फरना यान करना मुझे एक सा ही है।" और दूसरी ही पंकि में कहा है कि जब दोनों घात एक ही सी हैं, तब फिर "कर्म न करने का आग्रह ही क्यों है ? जो जो शाख की रीति से प्राप्त होता जाय उसे मैं करता रहता हूँ" (यो. ६. ३. २१६. १४)। इसी प्रकार इसके पहने, योगवासिष्ठ में नैव तत्य कृतेनार्यो" प्रादि गीता का श्लोक ही शब्दशः लिया गया है, और आगे के श्लोक में कहा है कि “ यद्यया नाम सम्पन्नं तत्तथाऽस्त्विवरेण किम् "-जो प्राप्त हो बसे ही (जीवन्मुक्त) किया करता है, और कुछ प्रतीक्षा करता हुआ नहीं बैठता (यो. १६. उ. १२५. ४६.५०) योगवासिष्ठ में ही नहीं, किन्तु गणेशगीता में भी इसी अर्ष के प्रतिपादन में यह श्लोक भाया है- । किञ्चिदस्य न सायं स्यात् सर्यजन्तुपु सर्वदा। अतोऽसक्ततया भूप कर्तव्यं कर्म जन्तुभिः । "सका अन्य प्रणियों में कोई साध्य (प्रयोजन) शेषनहींरहता, अतएव हे राजन् ! लोगों को अपने अपने कर्तव्य असक्त युद्धि से करते रहना चाहिये" (गणेश- गीता २.१८)। इन सब उदाहरणों पर ध्यान देने से ज्ञात होगा कि यहाँ पर गीता के तीनों लोकों का जो कार्य-कारण-सम्बन्ध हमने ऊपर दिखलाया है, वही वीक है । और गीता के तीनों श्लोकों का पूरा अर्थ योगवासिष्ठ के एक ही श्लोक में भा गया है, अतएव उसके कार्य-कारण-भाव के विषय में शंका करने के लिये स्थान ही नहीं रह जाता। गीता की इन्हीं युक्तियों को महायानपन्य के षोड प्रत्यकारों ने भी पीछे से ले लिया है (देखो गी. र. पृ. ५६-५६९ और ५८३)। अपर जो यह कहा गया है कि स्वार्थ न रहने के कारण से ही ज्ञानी पुरुष को अपना कर्तव्य निष्काम पुदि से करना चाहिये, और इस प्रकार से किये हुए निष्काम कर्म का मोल में बाधक होना तो दूर रहा, उसी से सिद्धि मिलती है- इसी की पुष्टि के लिये प्रय हटान्त देते हैं- (२०) जनक आदि ने भी इस प्रकार कर्म से ही सिद्धि पाई है। इसी प्रकार सोक-संग्रह पर भी दृष्टि दे कर तुझे कर्म करना ही उचित है। । [पहले चरण में इस बात का उदाहरण दिया है कि निष्काम कर्मों से सिदि मिलती है और दूसरे चरण से भिन्न रीति के प्रतिपादन प्रारम्भ कर