६५८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । असतो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुपः ॥ १९ ॥ १२२ श्लोक में यह दृष्टान्त दिया गया है कि सव से श्रेष्ठ ज्ञानी भगवान् स्वयं अपना कुछ भी कर्तव्य न होने पर भी, कर्म ही करते हैं । सारांश, संन्यास- मार्ग के लोग ज्ञानी पुरुष की जिस स्थिति का वर्णन करते हैं, उसे ठीक मान लें तो गीता का यह वकन्य है कि उसी स्थिति से कर्मसंन्यास-पक्ष सिद्ध होने के बदले, सदा निष्काम कर्म करते रहने का पक्ष ही और भी दृढ़ हो जाता है। परन्तु संन्यासमार्गवाले टीकाकारों को कर्नयोग की उक युक्ति और सिद्धान्त (७,८,९) मान्य नहीं है इसलिये वै उक्त कार्य-कारण-भाव को अथवा समूचे अर्थ-प्रवाह को, या मागे वतलाये हुए भगवान के दृष्टान्त को भी नहीं मानते I(२२, २५ और ३०)। उन्होंने तीनों लोकों को तोड़ मरोड़ कर स्वतन्त्र मान लिया है और इनमें से पहले दो श्लोकों में जो यह निर्देश है कि "ज्ञानी पुरुष को स्वयं अपना कुछ भी कर्तव्य नहीं रहता, " इसी को गीता का अन्तिम सिद्धान्त मान कर इसी आधार पर यह प्रतिपादन किया है कि भगवान् ज्ञानी पुरुष से कहते हैं कि कर्म छोड़ दे! परन्तु ऐसा करने से तीसरे अर्थात् १६वें श्लोक में अर्जुन को जो लगे हाथ यह उपदेश किया है कि "पासकि छोड़ कर, कर्म कर" यह अलग कुमआ जाता है और इसकी उपपत्ति भी नहीं लगती । इस पेंच से बचने के लिये इन टीकाकारों ने यह अर्थ करके अपना समाधान कर लिया है कि, अर्जुन को कर्म करने का उपदेश तो इसलिये किया है कि वह अज्ञानी था! पिरन्तु इतनी माथापच्ची करने पर भी १६३ श्लोक का 'तस्मात् ' पद निरर्यक ही रह जाता है । और संन्यासमार्गवालों का किया दुमा यह अर्थ इसी अध्याय के पूर्वापर सन्दर्भ से भी विरुद्ध होता है एवं गीता के अन्यान्य स्पनों के इस उल्लेखं से भी विरुद्ध हो जाता है, कि ज्ञानी पुरुष को भी आसकि छोड़ कर कर्म करना चाहिये तथा आगे भगवान् ने जो अपना दृष्टान्त दिया है, उससे भी यह अर्थ विरुद्ध हो जाता है (देखो गी. २. ४७, ३.७, २५; १. २३. ६.. १८.६- और गी. र.प्र.११. पृ. ३२१-३२४) । इसके सिवा एक बात और भी है, वह यह कि इस अध्याय में उस कर्मयोग का विवेचन चल रहा है कि जिसके कारण कर्म करने पर भी वे बन्धक नहीं होते (गी. २.३६); इस विवेचन के बीच में ही यह वै सिर-पैर की सी बात कोई भी समझदार मनुष्य न कहेगा कि " कर्म छोड़ना उत्तम है"। फिर मना भगवान् यह बात क्यों कहने लगे? अतएव निरे साम्प्रदायिक आग्रह के और खींचातानी के ये अर्थ माने नहीं जा सकते योगवासिष्ठ में लिखा है कि जीवन्मुक्त ज्ञानी. पुरुष को भी कम करना चाहिये और जब राम ने पूछा-'मुझे बतलाइये कि मुक्त पुरुष कर्म क्यों करे' तव वसिष्ठ ने उत्तर दिया है- ज्ञस्य नार्थः कर्मत्यागैः नार्थः कर्मसमाश्रयैः। तेन स्थितं यथा यद्यत्तत्तथैव करोत्यसो
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९७
दिखावट