कर्मजिज्ञासा। सार समझ कर उन्हों ने सत्य ही के अनुसार व्यवहार करने के लिये सव लोगों को उपदेश किया है (मभा. अनु. १६७.५०) बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है। क्या इस बात की कमी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयंसिद्ध और चिरस्थायी है, उसके लिये भी कुछ अपवाद होंगे। परन्तु दुष्ट जनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत कठिन है। कल्पना कीजिये कि कुछ श्रादमी चोरों से पीछा किये जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे। इसके बाद हाथ में तलवार लिये हुए चोर तुम्हारे पास आ कर पूछने लगे की वे आदमी कहाँ चले गये? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे ?-क्या तुम सच बोल कर सब हाल कह दोगे, या उन निरपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्व का धर्म है । मनु कहते हैं " नापृष्टः कस्यचिव्यास चान्यायेन पृच्छतः " (मनु. २.११० मभा. शां. २८७.३४). जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना न चाहिये और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे तो, पूछने पर भी, उत्तर नहीं देना चाहिये। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान कुछ हूँ हूँ करके वात बना देना चाहिये -"जाननपि हि मेधाची जडवलोक पाच- रेत् । " अच्छा, क्या हूँ हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भापया करना नहीं है? महाभारत (आ. २१५.३४ ) में कई स्थानों में कहा है "न च्याजेन चरेद्धर्म " धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिये। क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, तुम खुद धोखा खा जानोगे। भच्छा यदि हूँ हूँ करके कुछ बना लेने का भी सम न हो, तो क्या करना चाहिये ? मान लीजिये, कोई चोर हाथ में तलवार ले कर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है, कि तुम्हारा धन कहाँ है? यदि कुछ उत्तर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिये। सब धर्मों का रहस्य जाननेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, ऐसे ही चोरों की कहानी का दृष्टांत दे कर कर्णपर्व (६९.६१ ) में अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत मध्याय (१०६ १५.१६) में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं- अकूजनेन चेन्मोक्षो नावजेत्कथंचन । अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरम्वाप्यकूजनात् । श्रेयत्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम् ॥ अर्थात् " यह वात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके तो, कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिये और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ संदेह होना सम्भव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है । " इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोचार ही के गी.२.५
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