पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७०१

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गीतारहत्य अयत्रा कर्मयोगशास्त्र। न बुद्धिमेदं जनानां कर्मसंगिनान् । जोपयेत्सर्वक्रमाणि विद्वान्युतः समाचरन् ॥२६॥ बुद्धि में ज्ञानी पुन्य भेद-भाव उत्पन्न न करे: (बाप स्वयं) युज अयान योगयुक हो कर सनी कान ने और लोगों से बुशी काये। i [इसका यह अर्थ है विज्ञानियों की बुद्धि में नेद-भाव सत्र न करें और आप न स लोक में भी यही बात नि से कही गई है। परन्तु इसका मनन्ध यह नहीं है कि लोगों को अचान में बनाये रखें । लोक में कहा है कि ज्ञानी पुरुष को लोकसंग्रह करना चाहिये, और लोसंग्रह यि ही लोगों को चतुर बनाना है। इस पर कोई शङ्का करे कि, वो लोक- प्रहही काना हो, तो पिन यह आवश्यक नहीं कि ज्ञानी पुत्र स्वयं कर्म कर लोगों की समना देन-ज्ञान सदेश न देन से ही कानवल नाता है। इसका नगवान यह बचा देते हैं कि विनय सहावरण अदृद्ध अन्यात ही नहीं गया है. (और सावारण्य लोग ही होते हैं) उनी यहि चल नुह से डर- दिश च्यिा जाय-विज्ञान बतला दिया जाय-तो वे अपने अनुचित वताव के सिमर्थन में ही इस ब्रह्मज्ञान का दुन्मयोग जिया करते हैं और वे उलटे, ऐसी चय बाते कहत सुनने सदैव देखे जाते हैं हि"अमुक ज्ञानी पुरुष तो ऐसा कहता है। इसी प्रकार यदि ज्ञानी पुन्म कला को एकाएक छोड़ बै, तो वह मज्ञानी लोगों को निस्योगी बनने के लिये एक उदाहरण ही बन जाता है। मनुष्य का इस प्रकार बानी, गॉव-पेंच लड़ानेवाला अथवा नियोगी हो नाना ही वृद्धि है और मनुष्य की बुद्धि में इस प्रकार से नेद-भाव उत्पन्न दिना ज्ञाता पुल्स को उचित नहीं है। अतएव गीता ने यह सिद्धान्त न्यिा है कि जो पुन्य ज्ञानी हो जाय, वह लोक संग्रह के लिये लोगों को चनुर और सदाबी बनाने के लिय-स्वयं संसार में रहना निष्काम कर्म अयान सदा- चिरम का प्रत्यन नमूना योगों को हिला और तदनुसार उन बावरण कावे। हजाद ने दसन यही बड़ा महत्वपूर्ण काम है (देखो गीतार. पृ. १०६)। नुि गीता के इस अनिवार को बसमने बन्ने कुछ टीशनर इस छोक का यो वितरीत अयं किया करते हैं कि " ज्ञानी पुरुष को अज्ञानियों के समान ही कम करनेत्र स्वाग इसलिये करना चाहिये, जिसमें कि अज्ञानी लोग नादान दिने रहकर ही अपने मन करते रहें! माना दम्माचरण सिवनाने अथवा लोगों को अज्ञानी बने रहने देकर जानवरों के समान उन कर्मकरा लेने के लिये ही गीता प्रवृत हुई है ! निनका यह सह निश्चय है कि ज्ञानी पुरुष कर्म न करे, जन्मत्र है कि कई लोसंग्रह एक हॉग का प्रतीत हो परनु गीता का वास्तविक अनिमाय ऐसा नहीं है । भगवान् कहते हैं विज्ञानी पुरुष के कानों में लोकसंग्रह एक महत्वपूर्ण काम है और ज्ञानी पुल अपने सम भाई के द्वारा धन सुवाले के लिये-नादान बनाये रखने के लिये नहीं-कर्म ही किया (देखो