गीता, अनुवाद और टिप्पणी-३ अध्याय । प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७॥ तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सजते ॥२८॥ प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सजन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नचिदो मंदान्छनविन विचालयेत् ॥ २९ ॥ गीतारहस्य प्र.११.१२)। अब यह शक्षा हो सकती है कि यदि आत्मज्ञानी पुरुष इस प्रकार लोकसंग्रह के लिये सांसारिक कर्म करने लगे, तो वह भी अज्ञांनी ही बन जायगा; अतएव स्पष्ट कर बतलाते हैं कि यद्यपि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही संसारी बन जायें तथापि इन दोनों के बाद में भेद क्या है और ज्ञानवान् से अज्ञानी को किस बात की शिक्षा लेनी चाहिये-] (२७) प्रकृति के (सत्व-रज-तम) गुणों से सब प्रकार कर्म हुमा करते हैं पर प्रह- क्षार से मोहित (अज्ञानी पुरुप) समझता है कि मैं कर्ता हूँ (२८) परन्तु हे महावाहु अर्जुन! "गुण और कर्म दोनों ही मुझ से भिन्न हैं। इस तत्व को जानने- घाला (ज्ञानी पुरुष), यह समझ कर इनमें पासक नहीं होता कि गुणों का यह खेल आपस में हो रहा है । (२६) प्रकृति के गुणों से बहफे हुए लोग गुण और कर्मों में ही आसक्त रहते हैं। इन असर्वज्ञ और मन्द जनों को सर्वज्ञ पुरुष (अपने कर्मत्याग से किसी अनुचित मार्ग में लगा कर) बिचला न दे। [यहाँ २६ व श्लोक के अर्थ का ही अनुवाद किया गया है। इस श्लोक में जो ये सिद्धान्त हैं कि प्रकृति भिन्न है और आत्मा मिन ई, प्रकृति अथवा माया ही सब कुछ करती है, आत्मा कुछ करता-धरता नहीं है, जो इस तत्व को जान लेता है वही बुद्ध अथवा ज्ञानी हो जाता है, उसे कर्म का बन्धन नहीं होता, इत्यादि-वे मूल में कापिल-सांख्यशास्त्र के हैं। गीतारहस्य के ७ वे प्रकरण (पृ. १६४ -१६६) में इनका पूर्ण विवेचन किया गया है, उसे देखिये । २८ में श्लोक का कुछ लोग यों अर्थ करते हैं, कि गुण यानी इन्द्रियाँ गुणों में यानी विषयों में, बर्तती हैं। यह अर्थ कुछ शुद्ध नहीं है, क्योंकि सांख्य-शास्त्र के अनुसार ग्यारह इन्द्रियाँ और शब्द-स्पर्श यादि पाँच विषय मूल-प्रकृति के २३ गुणों में से ही गुण है। परन्तु इससे अच्छा अर्थ तो यह है कि प्रकृति के समस्त मर्थात् चौबीसो. गुणों को लक्ष्य करके ही यह "गुणा गुणेषु वर्तन्ते " का सिद्धान्त स्थिर किया गया है (देखो गी. १३. १६-२२ और १४. २३)। हमने. उसका शब्दशः और व्यापक रीति से अनुवाद किया है। भगवान ने यह बत- लाया है कि ज्ञानी और अज्ञानी एक ही कर्म करें तो भी उनमें बुद्धि की दृष्टि से बहुत बड़ा भेद रहता है (गीतार. पृ. ३१० और ३२८)। अब इस पूरे विवेचन के सार-रूप से यह उपदेश करते हैं-
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