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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७०४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-३ अध्याय । ६६५ $ श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मा भयावहः ॥ ३५ ।। होने के कारण, छुट नहीं सकते मनुष्य कितना ही ज्ञानी क्यों न हो, भूख लगते ही भिक्षा मांगने के लिये उसे बाहर निकलना पड़ता है, इसलिये चतुर पुरुषों का यही कर्तव्य है कि जबर्दस्ती से इन्द्रियों को बिलकुल ही मार डालने का वृथा हठ न करें; और योग्य संयम के द्वारा उन्हें अपने वश में करके, उनकी स्वभावसिद्ध वृत्तियों का लोकसंग्रहार्थ उपयोग किया करें। इसी प्रकार ३४ वें श्लोक के व्यवस्थित ' पद से प्रगट होता है कि सुख और दुःख दोनों विकार स्वतन्त्र हैं। एक दूसरे का प्रभाव नहीं है (देखो गीतार.प्र. पृ. ६६ और ११३) प्रकृति अर्थात् सृष्टि के अखण्डित व्यापार में कई बार हमें ऐसी बातें भी करनी पड़ती हैं कि जो हमें स्वयं पसन्द नहीं (देखो गी. 19८.५६); और यदि नहीं करते हैं, तो निर्वाह नहीं होता। ऐसे समय ज्ञानी पुरुष इन कर्मों को निरिच्छ धुद्धि से केवल कर्तव्य समझ कर, करता जाता है, श्रतः पाप-पुण्य से अनिस रहता है। और अज्ञानी उसी में प्रासक्ति रख कर दुःख पाता है। भास कवि के वर्णनानुसार बुद्धि की दृष्टि से यही इन दोनों में बड़ा भारी भेद है। परन्तु अव एक और शक्का होती है कि यद्यपि यह सिद्ध हो गया कि इन्द्रियों को ज़बर्दस्ती मार कर कर्मत्याग न करे, किन्तु निःसङ्ग घुद्धि से सभी काम करता जाये; परन्तु यदि ज्ञानी पुरुष युद्ध के समान हिंसात्मक घोर कर्म करने की अंपेक्षा खेती, व्यापार या भिक्षा माँगना भादि कोई निरुप. दवी और सौम्य कर्म करे तो क्या अधिक प्रशस्त नहीं है? भगवान्' इसका यह उत्तर देते हैं-1. (३५) पराये धर्म का प्राचरण सुख से करते बने तो भी उसकी अपेक्षा अपना धर्म अर्थात् चातुर्वण्र्य-विहित कर्म ही अधिक श्रेयस्कर है। (फिर चाहे) वह विगुण अर्थात् सदोप भले ही हो । स्वधर्म के अनुसार (बर्तने में) मृत्यु हो जावे तो भी उसमें कल्याण है, (परन्तु) परधर्म भयकर होता है ! 1 [स्वधर्म वह व्यवसाय है कि जो स्मृतिकारों की चातुर्वण्र्य-व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को शास्त्र द्वारा नियत कर दिया गया है। स्वधर्म का अर्थ मोक्षधर्म नहीं है । सब लोगों के कल्याण के लिये ही गुण-कर्म के विभाग से चातुर्वर्य-व्यवस्था को (गी. १८.४१) शास्त्रकारों ने प्रवृत्त कर दिया है। अतएव भगवान् कहते हैं कि ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि ज्ञानी हो जाने पर भी अपना अपना व्यवसाय करते रहे, इसी में उनका और समाज का कल्याण है, इस व्यवस्था में बारबार गड़बड़ करना योग्य नहीं है (देखो गीतार. पृ. ३३४ और ४९५ -- ४६६)| तेली का काम तँबोली करे, देव न मारे आपै मरे इस प्रचलित लोकोक्ति का भावार्थ भी यही है। जहाँ चातुर्वण्र्य-व्यवस्था का गी. र. ८४