६६६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अर्जुन उवाच । अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः। अनिच्छन्नपि वाणय वलादिव नियोजितः ॥३६॥ श्रीभगवानुवाच । काम एष क्रोध एप रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धचेनमिह वैरिणम् ॥ ३७॥ धूमेनानियते वह्निर्यथादशों मलेन च । यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ ३८॥ चिलन नहीं है वहाँ भी, सव को यही श्रेयस्कर जंचेगा कि जिसने सारी जिन्दगी फौजी मुहकमे में विताई हो, से यदि फिर काम पड़े तो उसको सिपाही का पेशा ही सुभीते का होगा; न कि दर्जी का रोजगार और यही न्याय चातुर्वण्र्य- व्यवस्था के लिये भी उपयोगी है। यह प्रश्न मिन्न है कि चातुर्वण्र्य व्यवस्था मिली है या बुरी; और वह यहाँ उपस्थित भी नहीं होता । यह बात तो निर्विवाद है कि समाज का समुचित धारण-पोपण होने के लिये खेती के ऐसे निरुपद्रवी और सौम्य व्यवसाय की ही माँति अन्यान्य कर्म भी आवश्यक हैं। अतएव जहाँ एक बार किसी उद्योग को अङ्गीकार किया-फिर चाहे उसे चातुर्वर्य-व्यवस्था के अनुसार स्वीकार करो या अपनी मर्जी से-कि वह धर्म हो गया। फिर किसी विशेष अवसर पर उसमें मीन-मेख निकाल कर, अपना किर्त्तव्यकर्म छोड़ बैठना अच्छा नहीं है आवश्यकता होने पर उसीव्यवसाय में ही मर जाना चाहिये । बस, यही इस श्लोक का भावार्य है। कोई भी व्यापार या रोज़गार हो, उसमें कुछ न कुछ दोप सहज ही निकाला जा सकता है (देखो गी. १८.४८.) परन्तु इस नुक्ताचीनी के मारे अपना नियत कर्तव्य ही छोड़ देना, कुछ धर्म नहीं है। महाभारत के ब्राह्मण-व्याघ-संवाद में और तुलाधार- जाजलि-संवाद में भी यही तत्व बतलाया गया है, एवं वहाँ के ३५ छोक का पूर्वार्ध मनुस्मृति (२०.६७) में और गीता (१८.४७) में भी भाया है । मग- वान् ने ३३ वें श्लोक में कहा है कि " इन्द्रियों को मारने का हठ नहीं चलता; इस पर अव अर्जुन ने पूछा है कि इन्द्रियों को मारने का हठ क्यों नहीं चलता, और मनुष्य अपनी मर्जी न होने पर भी बुरे कामों की और क्यों घसीटा जाता है?] अर्जुन ने कहा-(२६) हे वार्ष्णेय (श्रीकृष्ण)! अव (यह बतलाओ कि) मनुष्य अपनी इच्छा न रहने पर भी किस की प्रेरणा से पाप करता है मानों कोई जबर्दस्ती सी करता हो । श्रीभगवान् ने कहा-(३७) इस विषय में यह समझो, कि रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला वड़ा पेटू और बड़ा पापी यह काम एवं यह क्रोध ही शत्रु है। (३८) जिस प्रकार धुएं से अग्नि, धूलि से दर्पण और झिल्ली से गर्भ "
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७०५
दिखावट