गीता, अनुवाद और टिप्पणी- ३ अध्याय । यावृतं शानमेतेन शानिनो नित्यवैरिणा। कामरूपेण कौंतेय दुप्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥ इंद्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतर्विमोहयत्येष शानमावृत्य देहिनम् ॥ ४० ॥ तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि धेनं शानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥ 88 इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा वुद्धिों बुद्धेः परतस्तु सः॥४२॥ एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ ४३ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीसु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ एका रहता है, उसी प्रकार इससे यह सब ढका हुआ है । (३८) हे कौन्तेय ! ज्ञाता का यह कामरूपी नित्यवरी कभी भी तृप्त न होनेवाला अप्नि ही है। इसने ज्ञान को ढक रखा है। i [यह मनु के ही कथन का अनुवाद है मनु ने कहा है कि " न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णपर्मेव भूय एवाभिवर्धते" (मनु. १२.६४)-काम के उपभोगों से काम कभी अघाता नहीं है, बल्कि इंधन ढालने पर प्राप्ति जैसा बढ़ जाता है, उसी प्रकार यह भी अधिकाधिक बढ़ता जाता है (देखो गीतार. पृ. १०५)1] (४०) इन्द्रियों को, मन को, और बुद्धि को, इसका अधिष्ठान अर्थात् घर था गढ़ कहते हैं। इनके प्राध्य से ज्ञान को लपेट कर (ढक कर ) यह मनुष्य को भुलावे में दाल देता है। (४१) अतएव हे भरतश्रेष्ठ ! पहले इन्द्रियों का संयम करके ज्ञान (अध्यात्म) और विज्ञान (विशेष ज्ञान) का नाश करनेवाले इस पापी को तू मार डाल। (४२) कहा है कि (स्थूल यास पदार्थों के मान से उनको जाननेवाली) इन्द्रियाँ पर अर्थात् परे हैं, इन्द्रियों के परे मन है, मन से भी परे (व्यवसायात्मक) बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है वह आत्मा है। (५३) हे महाबाहु अर्जुन ! इस प्रकार (जो) पुदि से परे है उसको पहचान कर और अपने आपको रोक करके दुरासाद्य कामरूपी शत्रु को तू मार डान । [कामरूपी आसक्ति को छोड़ कर स्वधर्म के अनुसार लोकसंग्रहाय समस्त
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