पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७ ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतान् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥८॥ 8 जन्म कर्म च मे दिल्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥ वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥१०॥ क्यों कहते हैं, इस माया का स्वरूप क्या है और इस कथन का क्या अर्थ, कि माया से सृष्टि उत्पन्न होती है? - इत्यादि प्रश्नों का अधिक विवरण गीतारहस्य के १६वें प्रकरण में किया गया है। यह बतला दिया कि, अव्यक्त परमेश्वर व्यक्त कैसे होता है अर्थात् कर्म उपजा हुआ सा कैसे देख पड़ता है। अब इस बात का खुलासा करते हैं, कि वह ऐसा कब और किस लिये करता है-] (७) हे भारत ! जब-जब धर्म की ग्लानि होती और अधर्म की प्रबलता फैल जाती है, तव (तब) मैं स्वयं ही जन्म (अवतार) लिया करता हूँ। (2) साधुओं की संरक्षा के निमित्त और दुष्टों का नाश करने के लिये, युग-युग में धर्म की संस्थापना के अर्थ में जन्म लिया करता हूँ। [ इन दोनों लोकों में 'धर्म' शब्द का अर्थ केवल पारलौकिक वैदिक धर्म नहीं है, किन्तु चारों वर्षों के धर्म, न्याय और नीति प्रभृति वातों का भी उसमें मुख्यता से समावेश होता है । इस श्लोक का तात्पर्य यह है, कि जगत् में जब अन्याय, अनीति, दुष्टता और अंधाधुन्धी मच कर साधुओं को कष्ट होने लगता है और जव दुष्टों का दबदबा बढ़ जाता है, तब अपने निर्माण किए हुए जगत् की सुस्थिति को स्थिर रख कर उसका कल्याण करने के लिये तेजस्वी और परा- क्रिमी पुरुष के रूप से (गी. १०.४१) अवतार ले कर भगवान्, समाज की बिगड़ी हुई न्यवस्था को फिर ठीक कर दिया करते हैं। इस रीति से अवतार ले कर भगवान् जो काम करते हैं, उसी को लोकसंग्रह ' भी कहते हैं। पिछले अध्याय में कह दिया गया है, कि यही काम अपनी शक्ति और अधिकार के अनुसार आत्मज्ञानी पुरुषों को भी करना चाहिये (गी. ३. २०) । यह वतना दिया गया, कि परमेश्वर कव और किस लिये अवतार लेता है। अव यह बतलाते हैं, कि इस तत्व को परख कर जो पुरुष तदनुसार वर्ताव करते हैं उनको कौन सी गति मिलती है--] (९) हे अर्जुन ! इस प्रकार के मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के तत्व को जो जानता है, वह देह त्यागने के पश्चात् फिर जन्म न ले कर मुझ से पा मिलता है। (१०) प्रीति, भय और क्रोध से छूटे हुए, मत्परायण और मेरे आश्रय में पाये हुए