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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१२

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- गीता, अनुवाद और टिप्पणी ४ अध्याय । 68 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।११।। कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२॥ भनेक लोग (इस प्रकार ) ज्ञानरूप तप से शुद्ध होकर मर स्वरूप में आकर मिल भये हैं। [भगवान् के दिव्य जन्म को समझने के लिये यह जानना पड़ता है, कि अध्यक्त परमेश्वर माया से सगुण कैसे होता है और इसके जान लेने से अध्यात्म. ज्ञान हो जाता है एवं दिव्य कर्म को जान लेने पर कर्म करके भी अलिप्त रहने का, अर्थात् निष्काम कर्म के तव का, ज्ञान हो जाता है। लारांश, परमेश्वर के दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को पूरा पूरा जान लें तो अध्यात्मज्ञान और कर्मयोग दोनों की पूरी पूरी पहचान हो जाती है। और मोक्ष की प्राति के लिये इसकी आवश्यकता होने के कारण ऐसे मनुष्य को अन्त में भगवत्प्राप्ति हुए बिना नहीं रहती । अर्थात् भगवान के दिव्य जन्म और दिव्य कर्म जन्म लेने में सब कुछ मा गया; फिर अध्यात्मज्ञान अथवा निष्काम कर्मयोग दोनों का अलग अलग अध्ययन नहीं करना पड़ता । अतएव वकन्य यह है कि भगवान् के जन्म और कृत्य का विचार करो, एवं उसके तव को परख कर बर्ताव करो; भगवत्प्राप्ति होने के लिये दूसरा कोई साधन अपेक्षित नहीं है । भगवान् की यही सच्ची उपासना है । अब इसकी अपेक्षा नीचे के दर्जे की उपासनाओं के फल और उपयोग बतलाते हैं- (११) जो मुझे जिस प्रकार से भजते हैं. उन्हें मैं उसी प्रकार के फल देता हूँ। हे पार्थ ! किसी भी ओर से हो, मनुष्य मेरे ही मार्ग में आ मिलते हैं। } ["मम वानुवर्तन्ते ' इत्यादि उत्तरार्ध पहले (३. २३) कुछ निराले भर्ष में पाया है, और इससे ध्यान में आवेगा, कि गीता में पूर्वीपर सन्दर्भ के अनुसार अर्थ कैसे बदल जाता है। यद्यपि यह सच है, कि किसी मार्ग से जाने पर भी मनुष्य परमेश्वर की ही ओर जाता है, तो भी यह जानना चाहिये कि भनेक लोग अनेक मागों से क्यों जाते हैं ? अब इसका कारण बतलाते हैं-] (१२) (कर्मबन्धन क नाश की नहीं, केवल ) कमफल की इच्छा करनेवाले लोग इस लोक में देवताओं की पूजा इसलिये किया करते हैं, कि (ये) कर्मफल (इसी मनुष्यलोक में शीघ्र ही मिल जाते हैं। 1 [यही विचार सातवें अध्याय (२१,२२) में फिर आये हैं। परमेश्वर की भाराधना का सच्चा फल है मोक्ष, परन्तु वह तभी प्राप्त होता है कि जब काला तर से एवं दीर्घ और एकान्त उपासना से कर्मबन्ध का पूर्ण नाश हो जाता है इतने दूरदर्शी और दीर्घ-उद्योगी पुरुष बहुत ही थोड़े होते हैं । इस श्लोक कम गी.र. ८५.