गीता, अनुवाद और टिप्पणी - ४ अध्याय ! ६७७ यस्य सर्वे समारंभाः कामसंकल्पवर्जिताः। कर्मशून्यता हो तो भी, कर्म ही-अधिक क्या करें, विकर्म है और कर्मविपाक की दृष्टि से उसका अशुभ परिणाम हमें भोगना ही पड़ेगा। अतएव गीता इस श्लोक में विरोधाभास की रीति से बड़ी खूबी के साथ कहती है, कि ज्ञानी वही है जिसने जान लिया कि अकर्म में भी (कमी कभी तो भयानक) कर्म हो जाता है, और कर्म करके भी वह कर्म-विपाक की दृष्टि से मरा सा, अर्थात् भकर्म, होता तथा यही अर्थ अगले श्लोक में भिन्न-भिन्न रीतियों से वर्णित है । कर्म के फल का बन्धन न लगने के लिये गीताशास्त्र के अनुसार यही एक सच्चा साधन है कि निम्साघुद्धि से, अर्थात् फलाशा छोड़ कर निष्काम पुद्धि से कर्म किया जावे (गीतारहस्य पृ. ११०-११४, २८५ देखो)। अतः इस साधन का उपयोग कर निःसङ्ग बुद्धि से जो कर्म किया जाय वही गीता के अनुसार प्रशस्त- साविक-कर्म है (गी. १८.६); और गीता के मत में वही सच्चा अकर्म' है। क्योंकि उसका कर्मत्व, अर्थात् कर्म विपाक की क्रिया के अनुसार बन्धकत्व, निकल जाता है। मनुष्य जो कुछ कर्म करते हैं (और करते हैं 'पद में चुप- चाप निठल्ले बैठे रहने का भी समावेश करना चाहिये ) उनमें से उक्त प्रकार के अर्थात् 'सात्विक कर्म,' अथवा गीता के अनुसार अकर्म घटा देने से बाकी जो कर्म रह जाते हैं उनके दो भाग हो सकते हैं। एक राजस और दूसरा तामस । इनमें तामस कर्म मोह और अज्ञान से हुआ करते हैं, इसलिये उन्हें विकर्म कहते हैं-फिर यदि कोई कर्म मोह से छोड़ दिया जाय तो भी वह विकर्म ही है, अकर्म नहीं (गी. १८.७) । अब रह गये राजस कर्म। ये कर्म पहले. दर्जे के अर्थात् सात्विक नहीं हैं अपवा येवेकर्म भी नहीं हैं, जिन्हें गीता सचमुच भकर्म कहती है। गीता इन्हें 'राजस' कर्म कहती है। परन्तु यदि कोई चाहे, तो ऐसे राजस कर्मों को केवल कर्म' भी कह सकता है। तात्पर्य, क्रियात्मक स्वरूप अथवा कोरे धर्मशास्त्र से कर्म-अकर्म का निश्चय नहीं होता; किन्तु कर्म के बन्धकत्व से यह निश्चय किया जाता है कि कर्म है या अकर्म । अष्टावक्रगीता संन्यासमार्ग की है, तथापि उसमें भी कहा है- निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते । प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलमागिनी॥ अर्थात् मूखों की निवृत्ति (अथवा हठ से या मोह के द्वारा कर्म से विमुखता) ही वास्तव में प्रकृति अर्थात् कर्म है और पण्डित लोगों की प्रवृत्ति (अर्थात निष्काम कर्म) से ही निवृत्ति यानी कर्म-त्याग का फल मिलता है (अष्टा. १८.६१)। गीता के उक्त श्लोक में यही अर्थ विरोधाभासरूपी अलकार की रीति से बड़ी सुन्दरता से बतलाया गया है। गीता के अकर्म के इस लक्षण को भली भांति समझे बिना, गीता के कर्म-अकर्म के विवेचन का मर्म कभी भी समझ में आने का नहीं। अब इसी अर्थ को भगले श्लोकों में अधिक व्यक्त करते हैं-]
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