गीता, अनुवाद और टिप्पणी -४ अध्याय । ६८३ के यशशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । नायं लोकोऽस्त्ययशस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।। ३१।। पाले हैं, जिनके पाप यज्ञ से क्षीण हो गये हैं (और जो) अमृत का (अर्थात् यज्ञ से बचे हुए की) उपभोग करनेवाले हैं। यज्ञ न करनेवाले को (गव) इस लोक में सफलता नहीं होती, (तब) फिर हे कुरुश्रेष्ठ! (स) परलोक कहाँ से (मिलेगा)? [सारांश, यज्ञ करना ययपि वैद की आज्ञा के अनुसार मनुष्य का कर्तव्य है, तो भी यह यज्ञ एक ही प्रकार का नहीं होता । प्राणायाम करो,तप करो, वेद का अध्ययन करो, अमिष्टोम करो, पशु-यज्ञ करो, तिल-चावल अथवा घी का हवन करो, पूजा-पाठ करो या नैवैष-वैधदेव आदि पाँच गृहयज्ञ फरो; फलासति छूट जाने पर ये सब व्यापक अर्थ में यज्ञ ही हैं और फिर यज्ञ शेप भक्षण के विषय में मीमांसकों के जो सिद्धान्त है, ये सप इनमें से प्रत्येक यज्ञ के लिये उपयुफ हो जाते हैं। इनमें से पहला नियम यह है कि “ यज्ञ के अर्थ किया हुमा कर्म यन्धक नहीं होता" और इसका वर्णन तेईसवें श्लोक में हो चुका है (गी. ३.६ पर टिप्पणी देखौ)। अब दूसरा नियम यह है कि प्रत्येक गृहस्थ पचमहायज्ञ कर प्रतिथि आदि के भोजन कर चुकने पर फिर अपनी पत्नी- सहित भोजन करे; और इस प्रकार वतने से गृहस्थाश्रम सफल होकर सन्नति देता है। “ विघसं भुक्तशेपं तु यज्ञशेपमपामृतम् " (मनु. ३. २८५)-प्रतिषि वगैरह के भोजन कर चुकने पर जो यचे उसे विधा' और यज्ञ करने से जो शिंप रहे, असे 'अमृत' कहते हैं। इस प्रकार घ्याख्या करके मनुस्मृति और अन्य स्मृतियों में भी कहा है कि प्रत्येक गृहस्य को नित्य विवाशी और अमृताशी होना चाहिये (गो. ३. १३ और गीतारहस्य पृ० १९१ देखो) अय भगवान् कहते हैं कि सामान्य गृहयज्ञ को उपयुक्त होनेवाला यह सिद्धान्त ही सब प्रकार के उक्त यज्ञों को उपयोगी होता है। यज्ञ के अयं किया हुआ कोई भी कर्म बन्धक नहीं होता, यही नहीं बल्कि उन कर्मों में से भवशिष्ट कर्म यदि अपने निजी उपयोग में आ जावं, तो भी वे बन्धक नहीं होते (देखो गीतार. पृ. ३८४) । "यिना यज्ञ के इहलोक भी सिद्ध नहीं होता" यह वाक्य मार्मिक और महाव का है। इसका अर्थ इतना ही नहीं है, कि यज्ञ के बिना पानी नहीं पर- सता और पानी के न बरसने से इस लोक की गुज़र नहीं होती; किन्तु यज्ञ शब्द का व्यापक अर्थ लंकर, इस सामाजिक तत्व का भी इसमें पर्याय से समा. पेश हुआ है कि कुछ अपनी प्यारी यातों को छोड़े बिना न तो सब को एक सी सुविधा मिल सकती है, और न जगत् के व्यवहार ही चल सकते हैं । उदाहर- णार्थ, पश्चिमी समाजशास्त्र प्रणेता जो यह सिद्धान्त बतलाते हैं कि अपनी अपनी स्वतन्त्रता को परिमित किये बिना और को एक सी स्वन्त्रता नहीं मिल सकती, वही इस तत्व का एक उदाहरण है। और, यदि गीता की परिभाषा से इसी अर्थ को कहना हो तो इस स्थल पर ऐसी यज्ञप्रधान भाषा का ही प्रयोग
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