गीता, अनुवाद और टिप्पणी ४ - अध्याय। ६५५ 8 तद्विाद्ध प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं झानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४॥ यज्ज्ञात्वा न पुनहिमेवं यास्यसि पांडव । येन भूतान्यशेपेण द्रक्ष्यस्थात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥ अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। सर्व ज्ञानप्लवनैव वृजिन संतारेप्पसि ॥ ३६ ॥ यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । सानासिः सर्वकर्माणि भस्मसाकुरुते तथा ।। ३७ ॥ न हि शानेन सदृशं पवित्रामिह विद्यते । प्रतिपादन की गई है। अपने लिये नहीं तो लोकसंग्रह के निमित्त कर्तव्य समझ फर सभी कर्म करना ही चाहेये; और जया पे ज्ञान एवं समबुद्धि से किये जाते 1 तय उनके पाप-पुण्य की बाधा कर्ता को नहीं होती (देखो भागे ३७ वा श्लोक) और यह शानयज्ञ मोताद क्षेता है। अतः गीता का सब लोगों को यही उपदेश है, कि यज्ञ करो, किन्तु उन्ई ज्ञानपूर्वक निष्काम पुद्धि से करो।] (३४) ध्यान में रख, कि प्रणिपात से, प्रश्न करने से भीर सेवा से तत्ववेत्ता ज्ञानी पुरुष तुझे उस शान का उपदेश करेंगे; (३५) जिस ज्ञान को पाकर हे पायढव ! फिर तुझे ऐसा मोह नहीं होगा और जिस ज्ञान के योग से समस्त प्राणियों को तू अपने में और मुम में भी देखेगा। [सय प्राणियों को अपने में और अपने को सामाणियों में देखने का. समस्त प्राणिमात्र में एकता का जो ज्ञान आगे बात है (गी.६.२८), उसी का यहाँ उल्लेख किया गया है। मूल में प्रात्मा और भगवान् दोनों एक रूप , प्रतएव मात्मा में सप प्राणियों का समावेश होता है अर्थात् भगवान् में भी उनका समा. पेश होकर आत्मा (में), अन्य प्राणी और भगवान् यह निविध भेद नष्ट हो जाता है। इसीलिये भागवतपुराण में भगवद्भक्तों का लक्षण देते हुए कहा है, प्राणियों को भगवान् में और भपने में जो देखता है, उसे उत्तम भागवत कहना चाहिये"(भाग.११.२.४५)। इस महत्व के नीतितत्व का अधिक खुलासा गीतारहस्य के घारहवें प्रकरण (पृ.३८-३९७) में और भक्ति-दष्टि से तेरहवें प्रकरण (पृ. ४२६ -४३०) में किया गया है। (R) सब पापियों से यदि अधिक पाप करनेवाला हो, तो भी (इस) ज्ञान-नौका से ही तू सब पापों को पार कर जावेगा। (३७) जिस प्रकार प्रज्वलित की हुई अग्नि (सब) इंधन को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार हे अर्जुन !(यंह) ज्ञानरूप अनि सव कमा को (शुभ-अशुभ यन्धनों को)जला डालती है। [ज्ञान की महत्ता बतला दी। अब बतलाते हैं कि इस ज्ञान की प्राप्ति किन पायों से होती है-] <<
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