गीता, अनुवाद और टिप्पणी-५ अध्याय । ६८७ छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ट भारत ॥ ४२ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतामु उपनिषत्सु प्रणाविद्यायां योगशाने श्रीकृष्णार्जुन- संवाद मानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ गया है (श. ११; गीतार. पृ. ३५६ देखो ) उसी प्रकार गीता के इन दो श्लोकों में शान शौर (कर्म)योग का पृथक् उपयोग दिखला कर उनके अर्थात् ज्ञान और योग के समय से ही कर्म करने के विषय में अर्जुन को उपदेश दिया गया है। इन दोनों का पृथक्-पृथक उपयोग यह ई, कि निष्काम युद्धियों के द्वारा कर्म करने पर उनके यन्धन टूट जाते हैं, और वे मोक्ष के लिये प्रतियन्धक नहीं होते एवं ज्ञान से मन का सन्देह दूर होकर मोक्ष मिलता है । अतः अन्तिम उपदेश यह है, अकेझे कर्म या प्रकले ज्ञान को स्वीकार न करो, किन्तु ज्ञान- कम-समुच्चयात्मक कर्मयोग का पाश्रय करके युद्ध करो। अर्जुन को योग का मानय फरके युद्ध के लिये खड़ा रहना था, इस कारण गीतारहस्य के पृष्ठ ५८ में दिख- नाया गया है कि योग शब्द का अर्थ यहाँ 'कर्मयोग' ही लेना चाहिये। ज्ञान और योग का यह मेन ह“ज्ञानयोगव्ययस्थितिः" पद से देवी सम्पत्ति के लक्षण (गी. १६.१) में फिर बतलाया गया है।] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कई हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविद्या. न्तर्गत योग-प्रात् कर्मयोग-शासविपयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, शान-कर्म-संन्यासयोग नामक चौथा अध्याय समाप्त हुआ 1 [ध्यान रहे, कि 'ज्ञान-कर्म-संन्यास' पद में संन्यास' शब्द का अर्थ स्वरूपतः ‘कर्मत्याग' नहीं है, किन्तु निष्काम बुद्धि से परमेश्वर में कर्म का संन्यास अर्थात् अर्पण करना' अर्थ है । और आगे अठारहवें अध्याय के प्रारम्भ में उसी का खुलासा किया गया है। पाँचवाँ अध्याय । [चौथे अध्याय के सिद्धान्त पर संन्यासमार्गवालों की जो शक हो सकती है, उसे ही अर्जुन के मुख से, प्रश्नरूप से, कहला कर इस अध्याय में भगवान ने उसका स्पष्ट उत्तर दे दिया है। यदि समस्त कर्मों का पर्यवसान ज्ञान है (४.३३), यदि ज्ञान से ही सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते है (४. ३७), और यदि द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ है (४.३३); तो दूसरे ही अध्याय में यह कह कर, कि "धम्र्य युद्ध करना ही क्षत्रिय को श्रेयस्कर है" (२..३५) चौथे अध्याय के उपसंहार में यह बात क्यों कही गई कि “अतएव तू कर्मयोग का प्राध्य फर युद
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