पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७२७

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६८८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । पञ्चमोऽध्यायः । अर्जुन उवाच । संन्यासं फर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्य एतयोरेकं तन्मे हि सुनिश्चितम् ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । संन्यासः फर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । के लिये उठ खड़ा हो (४. १२)? इस प्रश्न का गीता यह उत्तर देती है, कि समस्त सन्दक्षों को दूर कर मोस-प्राप्ति के लिये ज्ञान की प्रावश्यकता है और यदि मोद के लिये कर्म यावश्यक न हों, तो भी कभी न छूटने के कारण वे लोकसंग्रहार्य भावश्यक है। इस प्रकार ज्ञान और कम, दोनों के ही समुण्य की नित्य अपेक्षा है (१.४१)। परन्तु इस पर भी शक्षा होती है, फियर फर्मयोग भार सांख्य दोनों ही मार्ग शास्त्र में विहित है, तो इनमें से अपनी के अनुसार सांख्यमार्गको स्योकार कर कर्मों का त्याग करने में हानि ही क्या है। अर्थात् इसका पूरा निर्णय हो जाना चाहिये, कि इन दोनों मागों में श्रेट कौन सा है । और अर्जुन के मन में यही शक्षा हुई है। उसने तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में जैसा प्रश्न किया था, वैसा ही अब भी वह पूछता है, कि-] (२) अर्जुन ने कहा- है कृपा ! (नम) एक यार संन्यास को और दूसरी बार का के योग को (अर्थात् कर्म करते रहने के मार्ग को हा) उत्तम यतनाते हो अप निश्चय कर मुझे एक ही (मार्ग) बतलामो, कि जो हम दोनों में सचमुच ही श्रेय अर्थात् अधिक प्रशस्त हो । (२) श्रीभगवान् ने कहा-कर्मसंन्यास और कर्म- योग दोनों निष्टाएँ या मार्ग निःश्रेयस्कर अर्थात् मोक्ष प्राप्त करा देनेवाले हैं परन्तु (अर्थात् मोक्ष की दृष्टि से दोनों की योग्यता समान होने पर भी) इन दोनों में कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्यता विशेप। [उक्त प्रश्न और उत्तर दोनों निःसन्दिग्ध और स्पष्ट है । व्याकरण की ष्टि से पहले श्लोक के श्रेय ' शब्द का अर्थ अधिक प्रशस्त या यहुत अच्छा है, दो मागों के तारतम्य-भावविषयक अर्जुन के प्रश्न का ही यह उत्तर है कि कर्मयोगो विशिष्यते'-कर्मयोग की योग्यता विशेप है। तथापि यह सिदान्त सांख्यमार्ग को इष्ट नहीं है, क्योंकि उसका कथन है कि ज्ञान के पश्चात् सब कर्मों का स्वरूपतः संन्यास ही करना चाहिये। इस कारण इन स्पष्ट अर्थवाले प्रश्नोत्तरों की व्यर्थ खींचातानी कुछ लोगों ने की है। जप यह खींचातानी करने पर भी निर्वाहन हुआ तब, उन लोगों ने यह तुरी लगा कर किसी प्रकार अपना समाधान कर लिया कि विशिष्यते' (योग्यता या विशेषता) पद से भगवान् ने कर्मयोग की मर्य. वादात्मक अर्थात् कोरी स्तुति कर दी है-मसम में भगवान का ठीक अभिप्राय