गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाब। है कि इस समय, झूठ बोलना ही मेरा कर्तव्य है।" ग्रीन साइव ने नीतिशास्त्रका विचार अध्यात्मदृष्टि से किया है। आप, उक्त प्रसंगों का उल्लेख करके, स्पष्ट रीति से कहते हैं कि ऐसे समय नीतिशास्त्र मनुष्य के संदेह की निवृत्ति कर नहीं सकता। अन्त में आपने यह सिद्धान्त लिखा है " नीतिशास्त्र, यह नहीं कहता कि किसी साधारण नियम के अनुसार, सिर्फ यह समझ कर कि वह नियम है, हमेशा चलने में कुछ विशेष महत्व है। किन्तु उसका कथन सिर्फ यही है कि 'सामान्यतः उस नियम के अनुसार चलना हमारे लिये श्रेयस्कर है । इसका कारण यह है कि, ऐसे समय, हम लोग, केवल नीति के लिये, अपनी लोममूलक नीच मनोवृत्तियों को त्यागने की शिक्षा पाया करते हैं "नीतिशास्त्र पर ग्रंथ लिखनेवाले वैन, बेबेल आदि अन्य अंग्रेज़ पंडितों का भी ऐसा ही मत है।। यदि उक्त अंग्रेज़ ग्रंथकारों के मतों की तुलना हमारे धर्मशास्त्रकारों के बनाये हुए नियमों के साथ की जाय, तो यह वात सहज ही ध्यान में या जायगी कि, सत्य के विषय में अभिमानी कौन है। इसमें संदेह नहीं कि हमारे शास्त्रों में कहा है:- न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीपु राजन्न विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वघनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ अर्यात् " इसी में, स्त्रियों के साथ, विवाह के समय, जब जान पर आ बने तव और संपत्ति की रक्षा के लिये, झूठ बोलना पाप नहीं है" (ममा.सा. ३२.१६ और शां. १०६ तथा मनु.८.१९०)। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्रियाँ के साथ हमेशा झूठ ही बोलना चाहिये । जिस माव से सिजधिक साहब ने 'छोटे लड़के पागल और बीमार आदमी' के विषय में अपवाद कहा है वही भाव महा- भारत के उक्त कथन का भी है । अंग्रेज़ ग्रंथकार पारलौकिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि की और कुछ मी ध्यान नहीं देते । उन लोगों ने तो खुल्लमखुल्ला यहाँ तक प्रतिपादन किया है कि व्यापारियों का अपने नाम के लिये झूठ बोलना अनुचित नहीं है। किन्तु यह वात हमारे शास्त्रकारों को सम्मत नहीं है । इन लोगों ने कुछ ऐसे ही मौकों पर झूठ बोलने की अनुमति दी है, जब कि केवल सत्य शब्दो- धारण (अर्थात् केवल वाचिक सत्य) और सर्वभूतहित (अर्थात् वास्तविक • Leslie Stephen's Science of Ethics, Ghap. IX § 29. p. 369 (2nd Ed )." And the certainty might be of such a kind as to make me think it a duty to lie. " f Graen's Prolegomena to Ethics, $ 315. p. 379 (5th Cheaper edition). Bain's Mental and Moral Science. p. 445 (Ed. 1875); and Whewell's Elements of Morality, Book II. Chaps. XIII and SIY. ( 4th Ed. 1864).
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