Buo कर्मजिज्ञासा। सत्य) में विरोध हो जाता है और व्यवहार की दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है। इनकी राय है कि सत्य भादि नीविधर्म नित्य-अर्थात् सय समय एक समान अबाधित- प्रतएव यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा सा पाप ही है और इसी लिये प्रायश्चित्त भी कहा गया है। संभव है कि भाजकल के माधिभौतिक पंडित इन प्रायश्चित्तों को निरर्थक होचा कहेंगे; परन्तु जितने ये प्रायश्चित्त कहे हैं और जिन लोगों के लिये ये कहे गये हैं वे दोनों ऐसा नहीं समझते। वे तो उक्त सत्य-अपवाद को गौण ही मानते हैं। और, इस विषय की कथाओं में भी, गही अर्थ प्रतिपादित किया गया है। देखिये, युधिष्ठिर ने संकट के समय एक ही बार, दवी हुई भावाज़ से, " नरो वा कुंजरो वा" कहा था। इसका फल यह हुमा कि उसका रथ, जो पहले ज़मीन से चार अंगुल ऊपर चला करता था, अब और मामूली लोगों के रथों के समान धरती पर चलने लगा। और, भन्त में एक क्षण भर के लिये असे नरकलोक में रहना पड़ा (मभा. द्रोणा. १६१. ५७. ५८ तथा स्वर्गा. ३. १५)! दूसरा उदाहरण अर्जुन का लीजिये। अश्वमेधपर्व (८१.१०) में लिखा है कि यधपि अर्जुन ने भीष्म का वध क्षानधर्म के अनुसार किया था, तथापि उसने शिखंडी के पीछे छिप कर यह काम किया था, इसलिये उसको अपने पुत्र बभ्रुवाहन से पराजित होना पड़ा।इन सवधातों से यही प्रगट होता है कि विशेष प्रसंगों के लिये कहे गये उक्त अपवाद मुख्य या प्रमाण नहीं माने जा सकते । हमारे शास्त्रकारों का मंतिम और तात्विक सिद्धान्त वही है जो महादेव ने पार्वती से कहा है:- आत्महतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात्तथा । ये मृपा न वदन्तीह ते नराः वर्गगामिनः ।। "जो लोग. इस जगत् में स्वार्थ के लिये, परार्थ के लिये या ठठे में भी, कभी झूठ नहीं बोलते; उन्हीं को स्वर्ग की प्रालि होती है" (मभा. अनु. १४४.१६)। अपनी प्रतिज्ञा या वचन को पूरा करना रात्य ही में शामिल है। भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्म पितामह कहते हैं " चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से इट जाय, अथवा अग्नि शीतल हो जाय, परन्तु हमारावचन टल नहीं सकता"(मभा. मा. १०३ तथा उ.८१.४८) भर्तृहरि ने भी सत्पुरुषों का वर्णन इस प्रकार किया है- तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति सत्यवतव्यसनिनो न पुनः प्रतिशाम् ।। " तेजस्वी पुरुप धानन्द से अपनी जान भी दे देंगे, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कभी नहीं करेंगे" (नीतिश. ११०) । इसी तरह श्रीरामचंद्रजी के एक-पानीवत के साथ उनका, एक वाण और एक वचन का, व्रत भी प्रसिद्ध है। जैसा इस सुभापित में कहा है "द्विःशरं नाभिसंधत्ते रामो द्विाभिभापते"। हरिश्चंद्र ने तो अपने स्वर में दिये हुए वचन को सत्य करने के लिये डोम की नीच सेवा भी की थी। इसके उलटा,वेद में यह वर्णन है कि इंद्रादिः देवताओं ने घृत्रासुरं
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