गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । न प्रहष्यत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविग्रह्माणि स्थितः ॥ २० ॥ बाह्यस्पर्शष्वसत्तात्मा विदयात्मनि यत्सुखम् । स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥ ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आधंतवंतः कौंतेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२॥ शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक् शरीरविमोक्षणात् । कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ २३ ॥ उपनिषदों में है और उसी का अनुवाद ऊपर के श्लोकों में किया गया है । पस्तु इस अध्याय के 2-१२ श्लोकों से गीता का यह अभिप्राय प्रगट होता है, कि इस अवस्या में भी कर्म नहीं छूटते । शङ्कराचार्य ने छान्दोग्य उपनिषद् के उक वाक्य का संन्यासप्रधान अर्थ किया है। परन्तु मूल उपनिषद् का पूर्वापर सन्दर्भ देखने से विदित होता है कि ब्रह्मसंस्थ' होने पर भी तीन आश्रमों के कर्म करनेवाले के विषय में ही यह वाक्य कहा गया होगा और इस उपनिपद के अन्त में यही अर्थ स्पष्ट रूप से बतलाया गया है (चां.द. १५. १ देखो)। ब्रह्मज्ञान हो चुकने पर यह अवस्था जीते जी प्राप्त हो जाती है, अतः इसे ही जीवन्मुक्तावस्या कहते (गीतार. पृ० २९५-३०० देखो) । अध्यात्मविद्या की यही पराकाष्ठा है चित्तवृत्ति-निरोधरूपी जिन योग-साधनों से यह अवस्था प्राप्त हो सकती है, उनका विस्तारपूर्वक वर्णन अगले अध्याय में किया गया है। इस अध्याय में अब केवल इसी अवस्था का अधिक वर्णन है।] (२०) जो प्रिय अर्थात् इष्ट वस्तु को पा कर प्रसन्न न हो जावे और अप्रिय को पाने से खिन्न भी न होवे, (इस प्रकार) जिसकी बुद्धि स्थिर है और जो मोह में नहीं फैसता, उसी ब्रह्मवेत्ता को ब्रह्म में स्थित हुमा समझो । (२१) बाह्य पदार्थों के (इन्द्रियों से होनेवाले) संयोग में अर्थात् विषयोपभोग में जिसका मन भासक नहीं, रसे (ही) प्रात्मसुख मिलता है और वह ब्रह्मयुक्त पुरुष अक्षय सुख का अनुभव करता है। (२२) (बाहरी पदार्थों के) संयोग से ही उत्पन्न होनेवाले भोगों का आदि और अन्त है, अतएव वे दुःख के ही कारण हैं है कौन्तेय ! उनमें पण्डित लोग रत नहीं होते। (२३) शरीर छूटने के पहले अर्थात् मरण पर्यन्त काम-क्रोध से होनेवाले वेग को इस लोक में ही सहन करने में (इन्द्रियसंयम से) जो समर्थ होता है, वही युक्त और वही (सच्चा) सुखी है। [गीता के दूसरे अध्याय में भगवान ने कहा है, कि तुझे सुख-दुःख सहना चाहिये (गी. २. १४) यह उसी का विस्तार और निरूपण है। गीता २. १४ में सुख-दुःखों को पागमापायिनः' विशेषण लगाया है, तो यहाँ १२२ श्लोक में उनको आद्यन्तवन्तः कहा है और माना' शब्द के बदले
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