पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७३५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। ss भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशाने श्रीकृष्णार्जुन- संवादे संन्यासयोग नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥ इससे प्रगट होता है कि यह समस्त वर्णन कर्मयोगी जीवन्मुक का ही है- संन्यासी का नहीं है (गी. र. पृ. ३०३ देखो)। कर्ममार्ग में भी सर्वभूतान्तर्गत परमेश्वर को पहचानना ही परम साध्य है, अतः भगवान् अन्त में कहते हैं कि-] (२९) जो मुझ को (सव) यज्ञों और तपों का भौका, (स्वर्ग आदि) सब लोकों का बड़ा स्वामी, एवं सत्र प्राणियों का मित्र जानता है, वही शान्ति पाता है। इस प्रकार श्रीभगवान के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में, ब्रह्मवि- बान्तर्गतयोग–अर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, संन्यास-योग नामक पाँचवा अध्याय समाप्त हुना। छठा अध्याय। [इतना तो सिद्ध हो गया, कि मोक्षप्राप्ति होने के लिये और किसी की भी अपेक्षा न हो, तो भी लोकसंग्रह की दृष्टि से ज्ञानी पुरुष को ज्ञान के अनन्तर मी कर्म करते रहना चाहिये परन्नु पलाशा छोड़ कर उन्हें समबुद्धि से इसलिये करे ताकि वे वन्धक न हो जायें, इसे ही कर्मयोग कहते हैं और कर्मसंन्यासमार्ग की अपेक्षा यह अधिक श्रेयस्कर है। तथापि इतने से ही कर्मयोग का प्रतिपादन समाप्त नहीं होता। तीसरे ही अध्याय में भगवान् ने अर्जुन से काम-क्रोध आदि का वर्णन करते हुए कहा है, कि ये शत्रु मनुष्य की इन्द्रियों में, मन में, और बुद्धि में घर करके ज्ञान-विज्ञान का नाश कर देते हैं (३.४०), अतः तू इन्द्रियों के निग्रह से इनको पहले जीत ले । इस उपदेश को पूर्ण करने के लिये इन दोनों का खुलासा करना आवश्यक था, कि (१) इन्द्रियनिग्रह कैसे करें, और (२) ज्ञान- विज्ञान किसे कहते हैं परन्तु बीच में ही अर्जुन के प्रश्नों से यह बतलाना पड़ा कि कर्म-संन्यास और कर्मयोग में अधिक अच्छा मार्ग कौन सा है फिर इन दोनों मागों की यथाशक्य एकवाक्यता करके यह प्रतिपादन किया गया है कि कर्मों को न छोड़ कर, निःसङ्गबुद्धि से करते जाने पर ब्रह्मनिर्वाणरूपी मोक्ष क्योंकर मिलता है। भव इस अध्याय में उन साधनों के निरूपण करने का आरम्भ किया गया है, जिनकी आवश्यकता कर्मयोग में भी उक निःसङ्ग या ब्रह्मनिष्ठ स्थिति प्राप्त करने में होती है । तथापि स्मरण रहे कि, यह निरूपण मी कुछ स्वतन्त्र रीति से पात- असयोग का उपदेश करने के लिये नहीं किया गया है। और, यह बात पाठकों के