पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७३६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । पष्ठोऽध्यायः । श्रीभगवानुवाच । अनाश्रितः कर्मफलं कार्य फर्म करोति यः। ससंन्यासीच योगीच न निरशिनं चाक्रियः ॥१॥ यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव । नहासंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥ ध्यान में आ जाय, इसलिये यहां पिछले अध्यायों में प्रतिपादन की हुई बातों का ही प्रयम उल्लेख किया गया है, जैसे फलाशा छोड़ कर कर्म करनेशले पुरुष को ही समा संन्यासी समझना चाहिये-कर्म छोड़नेवाले को नहीं (५.३) इत्यादि।] (१) कर्मफल का आश्रयन करके (अर्थात मन में फलाशा कोन टिकने दे कर) नो (शासानुसार अपने विहित) कर्त्तन्य फर्म करता है, वही संन्यासी और वही कर्म- योगी है । निरनि अर्थात् अग्निहोत्र मादि कर्मी को छोड़ देनाना अथवा प्रक्रिय भर्यात कोई भी कर्म न करके निठल्ले बैठनेवाला (समा संन्यासी और योगी) नहीं है।(२) हे पाण्डय! जिस मन्यास कहते हैं, उसी को (कर्म) योग समझे। क्योंकि सदस्य अर्थात् काम्यमुदिरूप फलाशा का संन्यास (त्याग) किये बिना कोई मी (फ.) योगी नहीं होता। [पिछले अध्याय में जो कहा है, कि " एकं सांस्यं च येगे च " (५.५) या "यिना योग के संन्यास नहीं होता" (५.६), अथवा "शेयः स निल. संन्याली " (५.३), उसी का यह अनुवाद है और भागे अठारहवें अध्याय (१८.२) में समप्र विषय का सपसंहार करते हुए इसी अर्थ का फिर भी वर्णन किया है। गृहस्थाश्रम में प्रानिहोत्र रख कर यज्ञ याग आदि कर्म करना पड़ते हैं, पर जो संन्यासाश्नमी हो गया हो, उसके लिये मनुस्मृति में कहा है कि उसको इस प्रकार अमि की रक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती, इस कारण वह निरप्ति हो जाय और जाल में रह कर मिक्षा से पेट पाले-जगत के व्यवहार में न पड़े (मनु. ६. २५ इत्यादि)। पहले श्लोक में मनु के इसी मत का उल्लेख किया गया है और इस पर भगवान् का कपन है, कि निरामि और निष्क्रिय होना कुछ सच्चे संन्यास का लक्षण नहीं है। काम्यद्धि का या फलाशा का त्याग करना ही सच्चा संन्यास है। संन्यास धुद्धि में है। अग्नि-याग अथवा फिर्म-त्याग की यास क्रिया में नहीं है। अतएव फलाशा अथवा सकल्प का त्याग कर कर्तव्य-कर्म करनेवाले को ही सच्चा संन्यासी फहना चाहिये । गीता का यह सिद्धान्त स्पतिकारों के सिद्धान्त से मिन ई । गीतारहस्य के 11वें प्रकाण (पृ. ३६-३४८) में स्पष्ट कर दिखला दिया है, कि गीता ने स्मृतिमार्ग से इसका मेल कैसे किया है । इस प्रकार सचा संन्यास बतला कर भय यह बतलाते हैं जी.र.८८