पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७३८

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥३॥ गया है, उसकी जो स्थिति अभ्यास पूरा हो चुकने पर, होती है ले घितलाने के लिये उत्तराधं का भारम्भ हुम्मा है। अतएव तस्यैव ' पदों से "धर्मगाः एव' यह सघं लिया नहीं जा सकता; अथवा यदि ले ही लें, तो उसका सम्यन्ध शमः' से न जोड़ कर " कारणमुध्यते" के साथ जोड़ने से ऐसा अन्यय लगता है. "शमः योगारूढस्य तस्यैव कर्मणः कारणमुच्यते," और गीता के सम्पूर्ण उपदेश के अनुसार उसका यह अर्थ भी ठीक लग जायगा कि "प्रय योगारूढ़ के फर्म का ही शम कारण होता है"1(३) टीकाकारों के पर्य को त्याज्य मानने का तीसरा कारण यह है कि संन्यासमार्ग के अनुसार योगारूढ पुरुष को कुछ भी करने की भावश्यकता नहीं रह जाती, इसके सय फर्मों का अन्त शम में ही होता है और जो यह सच है तो योगारूढ़ को शम कारण होता है। इस बार का कारण' शब्द पिलकुल ही निरर्थक हो जाता । कारण' शब्द सदेव सापेक्ष है। 'कारण' कहने से उसको कुछ न कुछ कार्य ' अवश्य चाहिये, और संन्यासमार्ग के अनुसार योगारूढ़ को तो कोई भी कार्य शेष नहीं रह जाता। यदि शम को मौत का कारण' अर्थात साधन कहें, तो मेल नहीं मिलता। क्योंकि लोन का साधन ज्ञान है, शिम नहीं । पचाशम को ज्ञान-प्राप्ति का 'कारा' अर्थात् साधन कई, तो यह वर्णन योगारुढ़ पर्यात पूर्णावस्या को ही पहुंचे हुए पुरुष का है, इसलिये उसको ज्ञान प्राप्ति तो फर्म के साधन से पहले ही हो चुक्ती है । फिर यह शम 'कारा'ची किसका? संन्यासमार्ग के टीकाकारों से इस प्रक्ष का कुछ भी समाधानकारक उत्तर देते नहीं यनता। परन्तु उनके इस अर्थ को बोड़ कर विचार करने लगे, तो उत्तरार्ध का अर्थ करने में पूर्वार्ध का कर्म 'पद सानिध्य-साम से सहज ही मन में भा जाता है और फिर यह अर्थ निष्पा होता कि योगा- रूढ पुरुष को लोकसंग्रहकारक फर्म करने के लिये अब'शम' 'कारा' या साधन हो नासा , फ्योंकि यद्यपि उसका कोई स्वार्थ शेप नहीं रह गया है. तथापि लोकस प्रहकारक कर्म किसी से छूट नहीं सकते (देखो गी. ३१७-१६) पिछले अध्याय में जो यह यघन है, कि “ युक्तः फर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमामोति नैष्ठिकोम् " (गी. १५. १२)-कर्मफल का त्याग करके योगी पूर्ण शान्ति पाता है-इससे भी यही अर्थ सिद्ध होता है। क्योंकि उसमें शान्ति का सम्बन्ध कमयाग से नजोड़ कर केवल फलाशा के त्याग से ही वर्णित है। वहीं पर स्पष्ट कहा है कि योगी जो कर्म- संन्यास कर यह मनसा' अर्थात मन से करे (गी. ५. १३) शरीर के द्वारा या फेवल इन्द्रियों के द्वारा उसे कर्म करना ही चाहिये। हमारा यह मत है कि मलकार-शास्त्र के अन्योन्यालाहार का सा अर्घ-चमत्कार या सौरस्य इस श्लोक में सध गया और पूर्वार्ध में यह पतला कर, कि 'शम' का कारण कर्म 'कब होता है, उत्तरार्ध में इसके विपरीत वर्णन किया है, कि 'कर्म' का कारण