गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। . IS आरक्षोर्मुनयोगं कर्म कारणमुच्यते । कि ज्ञान होने के पहले अर्थात् साधनावस्या में जो कम किये जाते हैं उनमें, और ज्ञानोत्तर अर्थात् सिद्धावस्था में फज्ञाशा बोड़ कर जो कम किये जाते हैं उनमें, क्या संद है। (३) (कर्म) योगारुष्ट होने की इच्छा रखनेवाले मुनि के लिये कर्म को (शम का) कारण अर्थात् साधन सा और उसी पुरुष के योगाल्ह प्रथांत पूर्ण योगी हो जाने पर उसके लिये (आगे) शम (कर्म का) कारण हो जाता है। [ टोकाचारों ने इस लोड के अर्थ का अनर्थ कर वाला है। लोक के पूर्वार्ध में योग-कर्मयोग यही अर्थ है, और यह बात समी को मान्य है, कि उसको सिद्धि के लिये पहले कम हो कारण होता है। किन्तु " योगारूढ़ होने पर उसी के लिये शम कारण हो जाता है " इसका अर्थ टीकाकारों ने संन्यातप्रधान कर दाला है। उनका कयन या ई-शन'= कर्म का उपशम' और जिसे योग सिद्ध हो जाता है. इसे लमं छोड़ देना चाहिये ! श्योंकि उनके मत में कर्मयोग स्न्यिाम का अङ्ग अर्थात् पूर्वपावन है। परन्तु यह अर्थ साम्प्रदायिक आग्रह का जो टीक नहीं है। इसका पहला कारण यह है कि (७) अब इस अध्याय के पहले ही लोक में भगवान् ने कहा है, कि कमफन का आश्रय न काले कत्तंन्य कर्म करनेवाला पुरुष ही सचा योगी अर्थात् योगाड़ है-कर्म न करनेवाला (अफ्रिय) सचा योगी नहीं है। तब यह मानना सर्वया अन्याय्य है, कि तीसरे लोक में यांगारूढ़ पुरुष को कम का शम करने के लिये या कम छोड़ने के लिये मगवान् कहेंगे । संन्यासमार्ग का यह मत भले ही हो. कि शान्ति मिल जाने पर योगारुढ पुरुप कम न करे, परन्तु गीता को यह मत मान्य नहीं है। गीता में, अनेक स्थानों पर स्पष्ट उपदेश किया गया है, कि कर्मयोगी सिद्धावस्था में भी यावजीवन भगवान् के समान निकामबुद्धि से सय कर्म केवल कर्तव्य समझ कर करता रहे (गी. २.७१:३.७ और 14. १-२१, ५.७-२१२ १२, १८.५६:५७; तथा गीतार.प्र. ११ और २ देखो)।(२)दूसरा कारण यह है, कि शम' शब्द का अर्थ कम का शम' कहा से आया? भगवद्गीता में 'शम' शब्द दो चार बार आया है. (गी. १०.८.४२) वहाँ और व्यवहार में भी उसका अर्थ 'मन की शान्ति' है। फिर इसी श्लोक में 'कर्म की शान्ति' अर्थ क्यों ल? इस कठिनाई को दूर करने के लिये गीता के पैशाचभाष्य में योगाल्डस्य सस्त्यैव' के 'तस्यव' इस दर्शक सर्वनाम का सम्बन्ध 'योगाल: ढिस्य ' से न लगा कर 'तस्य' को नपुंसक लिंग की पठी विमति समझ करके ऐसा धर्य किया है, कि तात्यैव कर्मणः शमः" (तस्य प्रांत पूर्वाधं के कर्म का शम)! किन्तु यह अन्वय मी सरल नहीं है। क्योंकि, इसमें कोई सन्देह नहीं कि योगाभ्यास करनेवाले जिस पुरुष का वर्णन इस श्लोक के पूर्वाध में किया
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