७०६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । घेत्ति यत्र न चैवाय स्थितब्बलति तत्त्वतः ॥ २१॥ यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिस्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२ ॥ तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोग योगसंशितम् । स निश्चयेन योक्तन्यो योगोऽनिविण्णचेतसा ।। २३॥ 8 संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेपतः। मनसैवेंद्रियग्राम विनियम्य समंततः ॥ २४ ॥ शनैः शनैरुपरमेवुया धृतिगृहीतया । वह (एक यार) स्थिर हुआ तो तस्व से कमी भी नहीं डिगता, (२२) ऐसे ही जिस स्पिति को पाने से उसकी अपेक्षा दूसरा कोई भी लाम उसे अधिक नहीं बचता, और जहाँ स्थिर होने से कोई भी बड़ा भारी दुःख (रलको) वहाँ से विचला नही सकता, (२३) उसको दुःख के स्पर्श से वियोग अर्थात् 'योग' नाम की स्थिति कहते है और इस 'योग' का आचरण मन को उकसाने न देकर निश्चय से करना चाहिये। [इन चारों श्लोकों का एक ही वाक्य है । २४ वें श्लोक के प्रारम्भ के 'उसको (तं) इस दर्शक सर्वनाम से पहले तीन श्लोकों का वर्णन उद्दिष्ट है। और चारों लोकों में समाधि' का वर्णन पूरा किया गया है । पातञ्जलयोग-सूत्र में योग का यह लक्षण है कि " योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः -चित्त की वृत्ति के निरोष को योग कहते हैं। इसी के सश २० वें श्लोक के आरम्म के शब्द हैं। अव इंस 'योग' शब्द का नया लक्षण जान बूझ कर दिया है, जिससाधि इसी चित्तवृति- निरोध की पूर्णावस्था है और इसी को योग कहते हैं। उपनिषद् और महा- भारत में कहा है, कि निग्रहकर्ता और उद्योगी पुरुष को सामान्य रीति से यह योग . छ: महीने में सिद्ध होता है (मैच्यु. ६.२५ अमृतनाद. २६ नमा. अश्व अनुः गीता १६.६६)। किन्तु पहले २० वें और २६वें श्लोक सट कह दिया है, कि पाताल योग की समाधि से प्राप्त होनेवाला सुख न केवल चित्त-निरोध से प्रत्युत चित्त-निरोध के द्वारा अपने आप बाला की पहचान कर लेने पर होता है। इस दुःखमाहित स्थिति को ही ब्रह्मानंद' या आत्मप्रसादज सुख ' अथवा 'नात्मा- निन्द' कहते हैं (गी. १८.३७, और गीतार. पृ. २३३ देखो)। अगले अध्यायों में इसका वर्णन है, कि आत्मज्ञान होने के लिये आवश्यक चित्त की यह समता एक पातजन-योग से ही नहीं उत्पन्न होती, किन्तु चित्तशुद्धि का यह परिणाम ज्ञान और भक्ति से भी हो जाता है। यही मार्ग प्राधिक प्रशस्त और सुलम समझा जाता है। समाधि का लक्षण बतला चुके अब बतलाते हैं कि उसे किस प्रकार लगाना चाहिये- (२४) सङ्कार से उत्पन्न होनेवाली सब कामनाओं अर्थात् वासनामों का विशेष त्याग कर मार मन से ही सब इन्द्रियों का चारों ओर से संबन कर
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