गीता, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । ७०७ मात्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिंतयेत् ॥ २५ ॥ यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ २६ ॥ प्रशान्तमनसं होनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मपम् ॥ २७ ॥ युंजन्नेवं सदाऽऽस्मानं योगी विगतकल्मपः। सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यंत सुखमश्नुते ॥ २८ ॥ $ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । (२५) धैर्ययुक्त शुद्धि से धीरे-धीरे शान्त होता जावे और मन को प्रात्मा में स्थिर करके, कोई भी विचार मन में न माने दे। (२६) (इस रीति से चित्त को एकाम भारते हुम) चचल और अस्थिर मन जहाँ-जहाँ बाहर जावे, वहाँ वहाँ से रोक कर पसको आत्मा केही स्वाधीन करे । i [मन की समाधि लगाने की क्रिया का यह वर्णन कठोपनिषद् में दी गई रिप की उपमा से (फ. १.३.३) अच्छा व्यक्त होता है। जिस प्रकार उत्तम सारथी रथ के घोड़ों को इधर-उधर न जाने दे कर सीधे रास्ते से ले जाता है, असी प्रकार का प्रयत्न मनुष्य को समाधि के लिये करना पड़ता है । जिसने किसी भी विषय पर अपने मन को स्थिर कर लेने का अभ्यास किया है, उसकी समझ में ऊपरवाले श्लोक का मर्म तुरन्त बा जायेगा। मन को एक ओर ले रोकने का प्रयत्न करने लगें, तो वह दूसरी ओर खिसक जाता है और यह आदत रुके विना समाधि लगनहीं सकती। अब, योगाभ्यास से चित्त स्थिर होने का जो फल मिलता है, उसका पर्यान करते हैं-] (२७) इस प्रकार शान्तचित्त. रज से रहित, निष्पाप और ग्राभूत (कर्म) योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है । (२८) इस रीति से निरन्तर अपना योगाभ्यास जनेवाला (फर्म-) योगी पापों से छूट कर बह-संयोग से प्राप्त होनेवाले अत्यन्त सुख का मानन्दं से उपभोग करता है। । [इन दो श्लोकों में इमने योगी का कर्मयोगी अर्थ किया है। क्योंकि कर्म- योग का साधन समझ कर ही पातअल-योग का वर्णन किया गया है अंतः पातंजल-योग के अभ्यास करनेवाले उक्त पुरुष से कर्मयोगी ही विवक्षित है। तथापि योगी का अर्थ समाधि लगाये बैठा हुआ पुरुष' भी कर सकते हैं। किन्तु सरण रहे, कि गीता का प्रतिपाय मार्ग इससे भी परे है। यही नियम भंगले दो-तीन श्लोकों को भी लागू है। इस प्रकार निर्वाण ब्रह्मसुख का अनुभव होने पर सव प्राणियों के विषय में जो भात्मौपम्य दृष्टि हो जाती है, अब उसका वर्णन करते है-] (२९) (इस प्रकार) जिसका आत्मा योगयुक्त हो गया है, उसकी दृष्टि सम
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