गीता, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । $ तपस्विभ्योऽधिको योगी शानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६॥ "जानना चाहिये, कि घस दो प्रकार का है। एक शब्द ब्रह्म और दूसरा उससे परे का (निर्गुण) शब्दप्रम में निष्णात हो जाने पर फिर इससे परे का (निर्गुण) ब्रह्म मास होता है। शब्दवस के काम्य कर्मों से उकता कर अन्त में लोकसंग्रह के अर्थ इन्हीं कर्मों को करानेवाले कर्मयोग की इच्छा होती है और फिर तप इस निष्काम कर्मयोग का थोड़ा थोड़ा आचरण होने लगता है। अनन्तर 'स्वल्पारम्भाः मकराः' के न्याय से ही थोड़ा सा आचरण उस मनुष्य को इस मार्ग में धीरे धीरे खींचता जाता है और अन्त में क्रम-क्रम से पूर्ण सिन्दि करा देता है । ५४ वें श्लोक में जो यह कहा है कि " कर्मयोग के जान लेने की इच्छा होने से भी वह शब्दप्रस के परे जाता है। उसका तात्पर्य भी यही है। क्योंकि यह जिज्ञासा कर्मयोगरूपी चरखे का मुंह है। और एक बार इस चरखे के मुंह में लग जाने पर फिर इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, कभी न कमी, पूर्ण सिद्धि मिलती है और वह शब्दब्रह्म से परे के यहा तक पहुंचे विना नहीं रहता। पहले पहल जान पड़ता है, कि यह सिद्धि जनक भादि को एक ही जन्म में मिल गई होगी; परन्तु तात्विक दृष्टि से देखने पर पता चलता है, कि उन्हें भी यह फल जन्म-जन्मान्तर के पूर्व संस्कार से ही मिला होगा। अस्तु कर्मयोग का थोड़ा सा आचरण, यहाँ तक कि जिज्ञास भी सदैव कल्याणकारक है, इसके अतिरिक्त अन्त में मोक्ष प्राति भी निःसंदेह इसी से होती है। अतः अब भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि-] (६) तपस्वी लोगों की अपेक्षा (फर्म-योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानी पुरुषों की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है और कर्मकाण्डवालों की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता है। इस- लिये हे अर्जुन! तू योगी अर्थात् कर्मयोगी हो। I [जन में जा कर उपवास आदि शरीर को केशदायक व्रतों से अथवा हठयोग के साधनों से सिद्धि पानेवाले लोगों को इस श्लोक में तपस्वी कहा है। और सामान्य रीति से इस शब्द का यही अर्थ है । “ज्ञानयोगेन सांख्यानां." (गी.३.३) में वर्णित ज्ञान से अर्थात् सांख्यमार्ग से कर्म को छोड़ कर सिद्धि प्राप्त कर लेनेवाले सांख्यनिष्ठ लोगों को ज्ञानी माना है। इसीप्रकार गी. २.४२-४४ और ६.२० २१ में वर्णित, निरे काम्य कर्म करनेवाले स्वर्ग-परायण कर्मठ मीमांसकों को कर्मी कहा है। इन तीनों पन्थों में से प्रत्येक यही कहता है कि हमारे ही मार्ग से सिद्धि मिलती है। किन्तु अब गीता का यह कथन है, कि तपस्वी हो, चाहे कर्मठ मीमांसक हो या ज्ञाननिष्ट सांख्य हो, इनमें प्रत्येक की अपेक्षा कर्मयोगी अर्थात् कर्मयोगमार्ग भी-श्रेष्ठ है। और पहले यही सिद्धान्त " अकर्म की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ है." (गी. ३. ८) एवं ".कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्म- गी.र.९०
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