पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५३

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनांतरात्मना । योग विशेष है." (गी. ५.२) इत्यादि श्लोकों में वर्णित है (देखो गीतारहस्य प्रकरण ११. पृ. ३०७, ३०८) । और तो क्या तपस्वी, मीमांसक अथवा ज्ञान- मार्गी इनमें से प्रत्येक की अपेक्षा कर्मयोगी श्रेष्ट है, 'इसी लिये पीछे जिस प्रकार अर्जुन को उपदेश किया है, कि योगस्थ हो कर कर्म कर' (गी. २.४८% गीतार.पृ.५६), अथवा " योग का प्राश्रय करके खड़ा हो" (४. ४२) उसी प्रकार यहाँ भी फिर स्पष्ट उपदेश किया है, कि "तू (कर्मयोगी हो ।' यदि इस प्रकार कर्मयोग को श्रेष्ठ न मान, तो " तस्मात् तू योगी हो" इस उप- देश का 'तस्मात् इसी लिये' पद निरर्थक हो जावेगा। किन्तु संन्यासमार्ग के टीकाकारों को यह सिद्धान्त कैसे स्वीकृत हो सकता है ? अतः उन लोगों ने ज्ञानी' शब्द का अर्थ बदल दिया है और वे कहते हैं कि ज्ञानी शब्द का अर्थ है शब्द- ज्ञानी अथवा वे लोग कि जो सिर्फ पुस्तकें पढ़ कर ज्ञान की लम्बी चौड़ी बातें छाँटा करते हैं। किन्तु यह अर्थ निरे साम्प्रदायिक आग्रह का है। ये टीकाकार गीता के इस अर्थ को नहीं चाहते, कि कर्म छोड़नेवाले ज्ञानमार्ग को गीता कम दर्जे का समझती है। क्योंकि इससे उनके सम्प्रदाय को गौणता आती है। और इसी लिये “ कर्मयोगो विशिष्यते " (गी. ५.२) का मी अर्थ उन्होंने बदल दिया है। परन्तु इसका पूरा पूरा विचार गीतारहस्य के 11वें प्रकरण में कर चुके हैं, अतः इस श्लोक का जो अर्थ इमने किया है उसके विषय में यहाँ अधिक चर्चा नहीं करते। हमारे मत में यह निर्विवाद है, कि गीता के अनुसार कर्मयोग-मार्ग ही सब में श्रेष्ठ है। अव प्रागे के श्लोक में बतलाते हैं, कि कर्मयोगियों में भी कौन सा तारतम्य भाव देखना पड़ता है-] (४७) तथापि सव (कर्म-)योगियों में भी मैं उसे ही सब में उत्तम युक्त अर्थात् सत्तम सिद्ध कर्मयोगी समझता हूँ कि जो मुझ में अन्तःकरण रख कर श्रद्धा से मुझ को भजता है। i [इस श्लोक का यह भावार्थ है, कि कर्मयोग में भी भक्ति का प्रेम-पूरित मेल हो जाने से, वह योगी भगवान् को अत्यन्त प्रिय हो जाता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा भक्ति श्रेष्ठ है। क्योंकि आगे वारहवें अध्याय में भगवान् ने ही स्पष्ट कह दिया है, कि ध्यान की अपेवा कर्मफलत्याग श्रेष्ठ है (गी. १२.१२)। निष्काम कर्म और भकि के समुच्चय को श्रेष्ठ कहना एक वात है और सब निष्काम कर्मयोग को व्यर्थ कह कर, भक्ति ही को श्रेष्ठ वतनाना दूसरी बात है। गीता का सिद्धान्त पहले हँग का है और भागवतपुराण का पन दूसरे ढंग का है । भागवत (१.५. ३४) में सब प्रकार के घ्यिायोग को आत्म ज्ञान-विघातक निश्चित कर, कहा है- नैष्कर्मप्यच्युतभाववर्जितं न शोमते ज्ञानमलं निरंजनम् ।