पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-६ अध्याय । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥४७॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु नाविद्यायां योगशाले श्रीकृष्णार्जुन- संपादे ध्यानयोगो नाम पठोऽध्यायः ॥ ६॥ निकम्य पर्यात निष्काम कर्म भी (भाग. ११.३.४६) विनाभगवद्भक्ति के शोमा नहीं देता, यह व्यर्थ है (भाग. १. ५. १२ और १२.१२.५२) । इससे व्यक होगा कि भागवत-कार का ध्यान कंवल भक्ति के ही ऊपर होने के कारण वे विशेष प्रसङ्ग पर भगवद्गीता के भी आगे कैसी चौकड़ी भरते हैं। जिस पुराण का निरूपण इस समझ ले फिया गया है, कि महाभारत में पोर इससे गीता में भी भक्ति का जैसा वर्णन होना चाहिये वैसा नहीं हुमा; उसमें यदि वक्त वचनों के समान और भी कुछ बातें मिले, तो कोई पाश्चर्य नहीं। पर हमें तो देखना है गीता का तात्पर्य, न कि भागवत का कथन । दोनों का प्रयोजन और समय मी भिल- भिन्न है। इस कारण यात-यात में उनकी एकवाक्यता करना उचित नहीं है। कम- योग की साम्य-शुद्धि प्राप्त करने के लिये जिन साधनों की आवश्यकता है, उनमें ले पातंजल योग के साधनों का इस अध्याय में निरूपण किया गया । ज्ञान और भक्ति भी अन्य साधन हैं अगले अध्याय से इनके निरूपण का प्रारम्भ होगा।] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद में, ब्रह्मविधा- न्तर्गत योग-अर्थात् कर्मयोग-शासविषयक,धीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, ध्यान- योग नामक छठा अध्याय समाप्त हुआ। सातवाँ अध्याय। [ पहले यह प्रतिपादन किया गया कि कर्मयोग सांख्यमार्ग के समान ही मोक्षप्रद है परन्तु स्वतन्त्र है और उससे श्रेष्ठ है और यदि इस मार्ग का थोड़ा भी माचरण किया जाय, तो वह व्यर्थ नहीं जाता; अनन्तर इस मार्ग की सिद्धि के लिये मावश्यक इन्द्रिय-निग्रह करने की रीति का वर्णन का किया गया है किन्तु इन्द्रिय- निग्रह से मतलब निरी पाप क्रिया से नहीं है, जिसके लिये इन्द्रियों की यह कसरत करनी है, उसका अब तक विचार नहीं हुआ। तीसरे अध्याय में भगवान् ने ही अर्जुन को इन्द्रिय-निग्रह का यह प्रयोजन बतलाया है, कि "काम-क्रोध आदि शत्रु इन्द्रियों में अपना घर बना कर ज्ञान-विज्ञान का नाश करते हैं" (३.४०, ४१) इसलिये पहले तू इन्द्रिय-निग्रह करके इन शत्रुओं को मार डाल । और पिछले अध्याय में योगयुक्त पुरुप का यो वर्णन किया है, कि इन्द्रिय-निग्रह के द्वारा