पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी -७ अध्याय । असंशयं समयं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥१॥ ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं पक्ष्याम्यशेपतः। यज्यात्वा नेह भूयोऽन्यज्यातव्यमवशिष्यते ॥२॥ नहीं करते । अब देखना चाहिये, कि सातवें अध्याय का प्रारम्भ भगवान् किस प्रकार करते हैं। श्रीभगवान् ने कहा-(१)हे पार्थ! मुझ में चित्त भगा कर और मेरा ही माश्रय फरके (कर्म)योग का प्राचरण करते हुए तुझे जिस प्रकार से या जिस विधि से मेरा पूर्ण और संशयविहीन ज्ञान होगा, उसे सुना (२) विज्ञान समेत इस पूरे ज्ञान को मैं तुमसे कहता है कि जिसके जान लेने से इस लोक में फिर और कुछ भी जानने के लिये नही रह जाता। i पहले लोक के " मेरा ही पाश्रय करके " इन शब्दों से और विशेष कर 'योग' शब्द से प्रगट होता है, कि पहले के अध्यायों में वर्णित कर्मयोग की सिद्धि के लिये ही अगला ज्ञान-विज्ञान कहा है-स्वतन्त्र रूप से नहीं पत- लाया है (देखो गीतार. पृ. ४५४ -४५५) । न केवल इसी श्लोक में, प्रत्युत गीता में अन्यत्र भी कर्मयोग को लक्ष्य कर ये शब्द माये है मद्योगमाश्रितः (जी. १२.११), 'मत्परः' (गी. ५७ और ११.५५); अतः इस विषय में कोई शक नहीं रहती, कि परमेश्वर का आश्रय करके जिल योग का प्राचरण करने के लिये गीता कहती है, वह पीछे के छः अध्यायों में प्रतिपादित कर्मयोग ही। कुछ लोग विज्ञान का अर्थ अनुमविक ब्रह्मज्ञान अथवा ब्रह्म का साका- कार करते हैं, परन्तु ऊपर के कथनानुसार हमें ज्ञात होता है, कि परमेश्वरी ज्ञान केही समष्टिरूप (ज्ञान) और व्यष्टिरूप (विज्ञान) ये दो भेद है, इस कारण ज्ञान-विज्ञान शब्द से भी उन्हीं का अभिप्राय है (गी. १३. ३० और १८. २० देखो)। दूसरे श्लोक के ये शब्द “फिर और कुछ भी जानने के लिये नहीं रह जाता" उपनिषद् के आधार से लिये गये हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में श्वेतकेतु से उसके बाप ने यह प्रश्न किया है कि "येन...अविज्ञातं विज्ञातं भवेति"-वह क्या है कि जिस एक के जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है और फिर लागे उसका इस प्रकार खुलासा किया है "यथा सौम्यैकेन मंत्पिण्डेन सर्व मृन्मय विज्ञात त्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्" (छां. ६.१.४) 1-हे तात ! जिस प्रकार मिट्टी के एक गोले के भीतरी भेद को जान लेने से ज्ञात हो जाता है, कि शेप मिट्टी के पदार्थ उसी मृत्तिका के विभिन्न नाम-रूप धारण करनेवाले विकार हैं और कुछ नहीं है, उसी प्रकार प्रम कोजान लेने से दूसरा कुछ भी जानने के लिये नहीं रहता। मुण्डक उपनिषद् (१.३.३) में भी भारम्भ में ही यह प्रश्न है, कि "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति"--किसकाज्ञान हो जाने से अन्य सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है ? इसले व्यक्त होता है, कि