पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥३॥ SS भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरप्रधा ॥ ४ ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ ५॥ एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्तस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥६॥ मत्तः परतरं नान्यत्किचिदस्ति धनंजय। अद्वैत वेदान्त का यही तत्व यहाँ अभिप्रेत है, कि एक परमेश्वर का ज्ञान-विज्ञान हो जाने से इस जगत् में और कुछ भी जानने के लिये रह नहीं जाता; क्योंकि जगत् का मूल तत्व तो एक ही है, नाम और रूप के भेद से वही सर्वत्र समाया हुआ है, सिवा उसके और कोई दूसरी वस्तु दुनिया में है ही नहीं। यदि ऐसा न हो तो दूसरे लोक की प्रतिज्ञा सार्थक नहीं होती।] (३) हज़ारों मनुष्यों में कोई एक-आध ही सिद्धि पाने का यत्न करता है, और प्रयत्न करनेवाले इन (अनेक) सिद्ध पुरुषों में से एक-माध को ही मेरा सच्चा ज्ञान हो जाता है [ध्यान रहे, कि यहाँ प्रयत्न करनेवालों को यद्यपि सिद्ध पुरुप कह दिया है, तथापि परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर ही उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं। परमेश्वर के ज्ञान के क्षर-अक्षर-विचार और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार ये दो भाग हैं। इनमें से भव चरस्मक्षर-विचार का आरम्भ करते हैं-] (७) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश (ये पाँच सूक्ष्म भूत), मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ प्रकारों में मेरी प्रकृति विभाजित है। (५) यह अपरा अर्थात् निन्न श्रेणी की (प्रकृति) है । हे महाबाहु अर्जुन ! यह जानो कि इससे भिन्न, जगत् को धारण करनेवाली परा अर्थात् उच्च श्रेणी की जीवस्वरूपी मेरी दूसरी प्रकृति है । () समझरखो, कि इन्हीं दोनों से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं। सारे जगत् का प्रभव मर्याद मूल और प्रलय अर्थात् अन्त मैं ही हूँ। (७) हे धनंजय ! मुझ से परे और कुछ नहीं है । धागे में पिरोये हुए मंणियों के समान, मुझ में यह सब गुंषा हुमा है। 1 [इन चार श्लोकों में सब क्षर अक्षर-ज्ञान का सार आ गया है और अगले श्लोकों में इसी का विस्तार किया है। सांख्य शास्त्र में सब सृष्टि के अचेतन अर्थाद जड़ प्रकृति और सचेतन पुरुष ये दो स्वतन्त्र तत्व बतला कर प्रतिपादन किया है, कि इन दोनों तत्वों से सब पदार्थ उत्पन्न हुए-इन दोनों से परे तीसरा तत्व नहीं है। परन्तु गीता को यह द्वैत मंजूर नहीं, अतः प्रकृति और पुरुष को एक