७२२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । आतों जिज्ञासुरार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ १६ ॥ तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिम्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ १७ ॥ उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ १८ ॥ बहूनां जन्मनामते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ १९ ॥ (६) हे भरतश्रेष्ट अर्जुन ! चार प्रकार के पुण्यात्मा लोग मैरी भाक्त किया करते --आर्त अर्थात् रोग से पीड़ित, २-जिज्ञासु अर्थात् ज्ञान प्राप्त कर लेने की इच्छा रखनेवाले, ३-अर्थार्थी अर्थात् द्रव्य आदि काम्य वासनाओं को मन में रख- नेवाने और ४-ज्ञानी अर्थात परमेश्वर का ज्ञान पा कर कृतार्थ हो जाने से आगे कुछ प्राप्त न करना हो, तो भी निष्कामबुद्धि से भाक्ति करनेवाले । (३७) इनमें एकमक्ति अर्थात् अनन्यभाव से मेरी भक्ति करनेवाले और सदैव युक्त यानी निष्काम बुद्धि से वर्तनवाले ज्ञानी की योग्यता विशेष है ! ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और ज्ञानी मुझे (अत्यन्त ) प्रिय है। (३८) ये सभी भक्त तदार अर्थात् अच्छे हैं, परन्तु मेरा मत है। कि (इनमें) ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है क्योंकि युद्धचित्त होकर (सब की) उत्तमोचम गति-स्वरूप मुझ में ही वह ठहरा रहता है। (१६) अनेक जन्मों के अनन्तर यह अनुभव हो जाने से कि "जो कुछ है, वह सब वासुदेव ही है," ज्ञान- वान् मुझे पा लेता है। ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। 1 [क्षर अक्षर की दृष्टि से भगवान् ने अपने स्वरूप का यह ज्ञान वतजा दिया, कि प्रकृति और पुरुष दोनों मेरे ही स्वल्प हैं और चारों ओर मैं ही एकता से भरा हुआ है। इसके साथ ही भगवान् ने जपर नो यह बतलाया है कि इस स्वरूप की भक्ति करने से परमेश्वर की पहचान हो जाती है, इसके तात्पर्य को भली भाँति स्मरण रखना चाहिये । उपासना सभी को चाहिये, फिर चाहे व्यक की करो चाहे अव्यक्त की; परन्तु व्यक्त की उपासना सुलम होने के कारण यहाँ उसी का वर्णन है और उसी का नाम भक्ति है। तथापि स्वार्थ बुद्धि को मन में रख कर किसी विशेष हेतु के लिये परमेश्वर की भक्ति करना निन्न श्रेणी की भक्ति है। परमेश्वर का ज्ञान पाने के हेतु से भक्ति करनेवाले (जिज्ञासु) को भी सञ्चा ही समझना चाहिये। क्योंकि उसकी जिज्ञासुत्व-अवस्था से ही व्यक्त होता है, कि अभी तक उसको परिपूर्ण ज्ञान नहीं हुा । तथापि कहा है, कि ये सब भक्ति करनेवाले होने के कारण उदार अर्थात् अच्छे मार्ग से जानेवाले हैं (श्लो. 1)। पहले तीन श्लोकों का तात्पर्य है, कि ज्ञान-प्राप्ति से कृतार्थ हो करके जिन्हें इस जगत में कुछ करने अथवा पाने के लिये नहीं रह जाता (गी. ३. 10-11), ऐसे ज्ञानी पुरुष निष्कामवृद्धि से जो भक्ति करते है (भाग. १.७.
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