गीता, अनुवाद और टिप्पणी-७ अध्याय । ७२३ ss कामैस्तैस्तईतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥२०॥ यो यो यां यांतनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥ २१ ॥ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥ २२ ॥ अंतवत्त फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । 1१०) यही सब में श्रेष्ठ है । महाद-नारद आदि की भक्ति इसी श्रेष्ठ श्रेणी की है और इसी से भागवत में भक्ति का लगा " भक्तियोग अर्थात परमेश्वर की नितुक और निरन्तर भक्ति " माना (भाग. ३. २६-१२और गीतार. पृ. १४०६ - ४१०) । १७ चें और 16 घे श्लोक के 'एकभाक्तिः ' और ' वासुदेवः । पद भागवतधर्म के है और यह कहने भी कोई चति नहीं कि भक्तों का उक्त सभी वर्णन भागवतधर्म का ही है। क्योंकि महाभारत (शां. ३४१.३३ -३५) में इस धर्म के वर्णन में चतुर्विध भक्तों का उल्लेख करते हुए कहा है कि- चतुर्विधा मम जना भक्ता एवं हि मे ध्रुतम् । तेपामेकान्तिनः श्रेया ये चैवानन्यदेवताः ।। महमेव गतिस्तेषां निराशीकमंफारिणाम् । ये च शिष्टारलयो भकाः फलकामा हि ते मताः ॥ सर्वे च्यवनधास्ते प्रतियुद्धस्तु एभाक् ।। मनन्यदैवत और एफान्तिक भक्त जिस प्रकार निराशीः अर्थात् फलाशारहित कर्म करता उस प्रकार अन्य तीन भक्त नहीं करते, वे कुछ न कुछ हेतु मन में रख कर भक्ति करते हैं, इसी से ये तीनों व्यवनशील हैं और एकान्ती प्रतिधुद (जानकार) है । एवं आगे 'वासुदेव' शब्द की प्राध्यात्मिक व्युत्पत्ति यों की है- "सर्वभूताधिवासश्च वासुदेवस्ततो सहम्"-मैं प्रागिमात्र में वास करता हूँ इसी से मुझको वासुदेय कहते हैं (शां. ३४१. ४०) अब यह वर्णन करते हैं कि यदि सर्वत्र एक ही परमेश्वर है तो लोग भिज-भिन्ना देवताओं की उपासना क्यों करते और ऐसे उपासको को क्या फल मिलता है- (२०) अपनी-अपनी प्रकृति के नियमानुसार भिन्न भिन (स्वर्ग आदि फलों की) काम-वासनाओं से पागल हुए लोग, भिन्न भिन्न (उपासनाओं के) नियमों को पान कर दूसरे देवताओं को मजते रहते हैं । (२१) जो भक्त जिस रूप की अर्थात् देवता की श्रद्धा से उपासना किया चाहता है, उसकी उसी श्रद्धा को मैं स्थिर कर देता हूँ। (२२) फिर उस श्रद्धा से युक्त होकर वह इस देवता की प्राराधना करने लगता है एवं उसको मेरे ही निर्माण किये हुए कामफल मिलते हैं। (२३) परन्तु (इन) अल्पयुधि लोगों को मिलनेवाले ये फल नाशवान् है (मोक्ष के समान
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