पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-७ अध्याय । ७२५ . वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ २६ ॥ जान कर मुझ अन्यक्त को व्यक्त हुआ मानते हैं। (२५) मैं अपनी योगरूप माया से माच्छादित रहने के कारण सय को (अपने स्वरूप से) प्रगट नहीं दिखता । मूढ़ लोग नहीं जानते, कि मैं अज और अन्यय हूँ।] i [अध्यक्त स्वरूप को छोड़ कर व्यक्त स्वरूप धारण कर लेने की युक्ति को योग कहते हैं (देखो गी. ४.६, ७. १५, ६. ७)। वेदान्ती लोग इसी को माया कहते हैं। इस योगमाया से ढका हुआ परमेश्वर व्यक्त स्वरूपधारी होता है। सारांश, इस श्लोक का भावार्थ यह है, कि व्यक सृष्टि मायिक अथवा अनित्य है और अव्यक्त परमेश्वर सच्चा या नित्य है। परन्तु कुछ लोग इस स्थान पर और भन्य स्थानों पर भी 'माया' का अलौकिक' अथवा 'विलक्षण' अर्थ मान कर प्रतिपादन करते हैं, कि यह माया मिथ्या नहीं-परमेश्वर के समान ही नित्य है। गीतारहस्य के नवें प्रकरण में माया के स्वरूप का विस्तारसहित विचार किया है, इस कारण यहाँ इतना ही कहे देते हैं, कि यह बात अद्वैत वेदान्त को भी मान्य है कि माया परमेश्वर की ही कोई विलक्षण और अनादि लीला है। क्योंकि माया यद्यपि इन्द्रियों का उत्पन्न किया हुआ दृश्य है, तथापि इन्द्रियाँ भी परमेश्वर की ही सत्ता से यह काम करती हैं, मतएव अन्त में इस माया को परमेश्वर की लीला ही कहना पड़ता है। वाद है केवल इसके तत्वतः सत्य या मिथ्या होने में सो उक्त श्लोकों से प्रगट होता है कि इस विषय में प्रवत वेदान्त के समान ही गीता का भी यही सिद्धान्त है, कि जिस नाम-रूपा. स्मक माया से अन्यक परमेश्वर व्यक्त माना जाता है, वह माया-फिर चाहे उसे भलौकिक शक्ति कहो या और कुछ-'अज्ञान से उपजी हुई दिखाऊ वस्तु या मोह' है, सत्य परमेश्वर-सव इससे पृथक् है। यदि ऐसा न हो तो 'अबुद्धि' और 'भूद' शब्दों के प्रयोग करने का कोई कारण नही देख पड़ता। सारांश, माया सत्य नहीं-सत्य है एक परमेश्वर ही। किन्तु गीता का कथन है, कि इस माया में भूले रहने से लोग अनेक देवताओं के फन्दे में पड़े रहते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् (१.४. १०) में इसी प्रकार का वर्णन है। यहाँ कहा है कि जो लोग आत्मा और ब्रह्म को एक ही न जान कर भेद-भाव से भिन्न-भिन्न देवताओं के फैदे में पड़े रहते हैं, वे देवताओं के पशु' है, अर्थात गाय आदि पशुओं से जैसे मनुष्य को फायदा होता है, वैसे ही इन अज्ञानी भक्तों से सिर्फ देवतामों काही फायदा है, उनके भक्तों को मोच नहीं मिलता। माया में उलझ कर भेद-भाव से अनेक देवताओं की उपासना करनेवालों का वर्णन हो चुका । अय बतलाते हैं कि इस माया से धीरे-धीरे छुटकारा क्योंकर होता है- (२६) हे अर्जुन ! भूत, वर्तमान और भविष्यत् (जो हो चुके हैं उन्हें, मौजूद और आगे होनेवाले) सभी प्राणियों को मैं जानता हूँ परन्तु मुझे कोई भी नहीं जानता।