७२६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । इच्छाद्वेषसमुत्येन द्वंद्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥२७॥ येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वंद्वमोहनिर्मुज भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ २८ ॥ IS जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥ २९ ॥ साधिभूताधिदेवं मां साधियज्ञं च ये विदुः । प्रयाणकालेऽपिच मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥३०॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यार्या योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन- संवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ (२७) क्योंकि हे भारत ! (इन्द्रियों के) इच्छा और द्वैप से उपजनेवाले (सुख-दुःख आदि) द्वन्द्वी के मोह से इस सृष्टि में समस्त प्राणी हे परन्तप! श्रम में फंस जाते हैं। (२८) परन्तु जिन पुण्यात्मायों के पाप का अन्त हो गया है, वे (सुख-दुःख भादि) द्वन्दों के मोह से छूट कर घढ़व्रत हो करके मेरी भक्ति करते हैं। } [इस प्रकार माया से छुटकारा हो चुकने पर आगे उनकी जो स्थिति होती उसका वर्णन करते हैं-] (२९) (इस प्रकार) जो मेरा आश्रय कर जरा-मरण अर्थात् पुनर्जन्म के चक्कर से छुटने के लिये प्रयत्न करते हैं, वे (सब) ब्रह्म, (सव) अध्यात्म और सब कर्म को जान लेते हैं। (१०) और अधिभूत, अधिदेव एवं अधियज्ञ सहित (अर्थात इस प्रकार, कि मैं ही सब हूँ) जो मुझे जानते हैं, वे युकचित्त (होने के कारण) मरण-काल में भी मुझे जानते रहते हैं। 1 [अगले अध्याय में अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव और माधयज्ञ का निरूपण किया है। धर्मशास्त्र का और उपनिपदों का सिद्धान्त है कि मरण-काल में मनुष्य के मन में जो वासना प्रबल रहती है, उसके अनुसार उसे भागे जन्म मिलता है इस सिद्धान्त को लक्ष्य करके अन्तिम श्लोक में “मरण-काल में मी" शब्द ; तथापि सक्त श्लोक के मी' पद से स्पष्ट होता है, कि मरने से प्रथम परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान हुए विना केवल अन्तकाश में ही यह ज्ञान नहीं हो सकता (देखो गी. २.७२)। विशेष विवरण अगले अध्याय में है। कह सकते हैं, कि इन दो श्लोकों में अधिभूत आदि शब्दों से आगे के अध्याय की प्रस्तावना ही की गई है। इस प्रकार श्रीभगवान् के गाय अर्याद कहे उपनिषद् में ब्रह्मविद्या- न्तर्गत योग -अर्थात् कर्मयोग -शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, ज्ञान-विज्ञानयोग नामक सातवाँ अध्याय समाप्त हुमा।
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