पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६७

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७२८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। अर्जुन उवाच । किं तद्ब्रह्म किमध्यात्म किं कर्म पुरुषोत्तम । है। अतः पूर्वपद्ध का जब विचार करना होता है तब माना जाता है कि प्रत्येक पदार्थ का सूक्ष्म स्वरूप या आत्मा पृथक्-पृथक् है, और यहाँ पर अध्यात्म शब्द से यही अर्थ अभिप्रेत है। महाभारत में मनुष्य की इन्द्रियों का उदाहरण देकर स्पष्ट कर दिया है, कि अध्यात्म, अधिदैवत और अधिभूत-दृष्टि से एक ही विवे. चन के इस प्रकार मिन्न-भिन्न भेद क्योंकर होते हैं (देखो ममा. शां. ३३६ और अश्व. ४१)। महाभारत-कार कहते हैं, कि मनुष्य की इन्द्रियों का विवेचन तीन तरह से किया जा सकता है, जैसे अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवत । इन इन्द्रियों के द्वारा जो विषय ग्रहण किये जाते हैं-उदाहरणार्थ हाथों से जो जिया जाता है, कानों से जो सुना जाता है, आँखों से जो देखा जाता है, और मन से जिसका चिन्तन किया जाता है-चे सब अधिभूत हैं और हाथ पैर आदि के (सांख्यशास्त्रोक्त) सूक्ष्म स्वभाव, अथांव सूक्ष्म इन्द्रियाँ, इन इन्द्रियों के अध्यात्म हैं। परन्तु इन दोनों दृष्टियों को छोड़ कर अधिदैवत दृष्टि से विचार करने पर- अर्थात् यह मान करके, कि हाथों के देवता इन्द्र, पैरों के विष्णु, गुद के मित्र, उपस्थ के प्रजापति, वाणी के अप्ति, आँखों के सूर्य, कानों के आकाश अथवा दिशा, जीम के जल, नाक के पृथ्वी, त्वचा के वायु, मन के चन्द्रमा, महकार के बुद्धि और बुद्धि के देवता पुरुष है कहा जाता है कि यही देवता लोग अपनी- अपनी इन्द्रियों के व्यापार किया करते हैं । उपनिषदों में भी उपासना के लिये ब्रह्म- स्वरूप के जो प्रतीक वर्णित हैं, उनमें मन को अध्यात्म और सूर्य अथवा आकाश को अधिदैवत प्रतीक कहा है (छां. ३. १८.१)। अध्यात्म और अधिदैवत का यह भेद केवल उपासना के लिये ही नहीं किया गया है बल्कि अब इस प्रश्र का निर्णय करना पड़ा कि वाणी, चक्षु और श्रोत्र प्रभृति इन्द्रियों एवं प्राणों में श्रेष्ठ कौन है, तब उपनिषदों में मा (बु. १.५. २१-२३ छां. १. २-३, कौषी. ४.१२,१३) एक बार वाणी, चत्तु और श्रोत्र इन सूक्ष्म इन्द्रियों को ले कर अध्यात्मदृष्टि से विचार किया गया है तथा दूसरी बार उन्हीं इन्द्रियों के देवता अग्नि, सूर्य और आकाश को ले कर मधिदैवत दृष्टि से विचार किया गया है। सारांश यह है कि अधिदेवत, अधि- भूत और अध्यात्म आदि भेद प्राचीन काल से चले आ रहे हैं और यह प्रश्न भी उसी जमाने का है कि परमेश्वर के स्वरूप की इन भिन्न-भिन्न कल्यनाओं में से सखी कौन है तथा उसका तथ्य क्या है। वृहदारण्यक उपनिषद् (३.७) में याज्ञवल्य ने उद्दालक मारुणि से कहा है, कि सब प्राणियों में, सब देवताओं में, समग्र अध्यात्म में, सब लोकों में, सब यज्ञों में और सब देहों में व्याप्त होकर उनके न समझने पर भी, उनको नचानेवाला एक ही परमात्मा । उपनिष का यही सिद्धान्त वेदान्तसुन के अन्तर्यामी अधिकरण में है (वेसू. १. २. १८-२०), वहाँ मी सिद्ध किया है कि सब के अंतःकरण में रहनेवाला यह तत्व सांख्यों की प्रकृति