पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी - अध्याय । ७२७ अष्टमोऽध्यायः। आठवाँ अध्याय । [ इस सध्याय में कर्मयोग के अन्तर्गत ज्ञान-विज्ञान का ही निरूपण हो रहा है और पिचले अध्याय में ग्रा, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदेव और अधि- यज्ञ, ये जो परमेश्वर के स्वरूप के विविध भेद कहे हैं, पहले उनका अर्थ बतला कर विवेचन किया है कि उनमें क्या तथ्य है । परन्तु यह विवेचन इन शब्दों की केवल प्याख्या करके अर्थात् अत्यन्त संवित रीति से किया गया है, अतः यहाँ पर उक्त विषय का कुछ अधिक खुलासा कर देना आवश्यक है । धाय सृष्टि के अवलोकन से, उसके कर्ता की कल्पना अनेक लोग अनेक रीतियों से किया करते हैं। कोई कहते हैं, कि सृष्टि के संय पदार्थ पनमहाभूतों के ही विकार हैं और इन पञ्चमहा- भूतों को छोड़ मूल में दूसरा कोई भी ताव नहीं है। २-दूसरे कुछ लोग, जैसा कि गीता के चौथे अध्याय में वर्णन है, यह प्रतिपादन करते हैं, कि यह समस्त जगत् यज्ञ से हुमा है और परमेघर यज्ञनारायण रूपी है, यज्ञ से ही उसकी पूजा होती है।३-और कुछ लोगों का कहना है, कि स्वयं जड़ पदार्थ सृष्टि के व्यापार नहीं करते; किन्तु उनमें से प्रत्येक में कोई न कोई सचेतनै पुरुष या देवता रहते हैं, जो कि इन प्यवक्षारों को किया करते हैं और इसी लिये हमें उन देवताओं की प्राराधना करनी चाहिये । उदाहरणार्थ, जड़ पांचभौतिक सूर्य के गोले में सूर्य नाम का जो पुरुप है वही प्रकाश देने वगैरह का काम किया करता है अतएव वही उपास्य है। ४-चौथै पक्ष का कथन ई, कि प्रत्येक पदार्थ में उस पदार्थ ले भिन्न किसी देवता का निवास मानना ठीक नहीं है। जैसे मनुष्य के शरीर में प्रात्मा है, वैसे ही प्रत्येक वस्तु में उसी वस्तु का कुछ न कुछ सूक्ष्मरूप अर्थात् प्रात्मा के समान सूक्ष्म शक्ति वास करती है, वही उसका मून और सचा स्वरूप है । उदाहरणार्थ, पंच स्थूलमहाभूतों में पंच सूक्ष्मतन्मात्राएँ और हाथ-पैर आदि स्थल इन्द्रियों में सूक्ष्म इन्द्रियाँ मूलभूत रहती हैं। इसी चौधे तत्व पर सांख्यों का यह मत भी अवतरित है, कि प्रत्येक मनुष्य का आत्मा भी पृथक्-पृथक् है और पुरुष असंख्य हैं परन्तु जान पड़ता है कि यहाँ इस सांख्यमत का अधिदेह । वर्ग में समावेश किया गया है। उक्त चार पक्षों को क्रम से अधिभूत, अधियज्ञ, अधि- दैवत और अध्यात्म कहते हैं। किसी भी शब्द के पीछे 'अधि' उपसर्ग रहने से यह अर्थ होता है-तमधिकृत्य,"तद्विपयक, 'इस सम्बन्ध का ' या उसमें रहनेवाला'। इस अर्थ के अनुसार अधिदेवत अनेक देवताओं में रहनेवाला तत्त्व है। साधारणतया अध्यात्म उस शास्त्र को कहते हैं जो यह प्रतिपादन करता है कि सर्वत्र एक ही आत्मा है। किन्तु यह अर्थ सिद्धान्त पन का है। अर्थात् पूर्व- पक्ष के इस कथन की जाँच करके कि " अनेक वस्तुओं या मनुष्यों में भी अनेक . प्रात्मा हैं, " वेदान्तशास्त्र ने आत्मा की एकता के सिद्धान्त को ही निश्चित कर दिया