पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७५

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गीतारहत्य अथवा कमयोगशास्त्र । 8 यत्र काले त्वनावृत्तिमावृति चैव योगिनः। प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥ भाग्नज्योतिरहः शुक्ल पण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥२४॥ धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः पण्मासा दक्षिणायनम् । तत्र चांद्रमसं ज्योतियोगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥ शुलवणे गती खेत जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥ २६ ॥ ब्रह्म परमं " यह वर्णन है। लारांश, 'अन्यक्त' शब्द के समान ही गीता में "अक्षर' शब्द का भी दो प्रकार ले रपयोग किया गया है। कुछ यह नहीं, कि सांस्यों की प्रकृति ही अव्यक्त और अन्नर है किन्तु वह परमेश्वर अथवा ब्रह्म भी अक्षर और अन्यक्त है कि जो "सब भूतों का नाश हो जाने पर भी ना नहीं होता । " पन्द्रहवें अध्याय में पुरुषोत्तम के लक्षण बतलाते हुए तो यह वर्णन है, कि वह क्षर और अन्वर से परे का है, उसले प्रगट है कि वहाँ का 'अक्षर' शब्द लांख्यों की प्रकृति के लिये उद्दिष्ट है (देन्दी गी. १५. १६-८)। ध्यान रहै कि 'अध्यक' और 'अक्षर' दोनों विशेषणों का प्रयोग गीता में कमी सांख्या की प्रकृति के लिये, और कनी प्रकृति से परे परब्रह्म के लिये किया गया है (देखो गीतार. पृ. २०१ और २०२)। व्यक और अव्यक्त से परे जो परब्रह्म है, उसका स्वरूप गीतारहस्य के प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है। उस 'अक्षर ब्रह्म' का वर्णन हो चुका कि जिस स्थान में पहुंच जाने से मनुष्य पुन- जन्म की चपेट से छुट जाता है। श्रव नरने पर जिन्हें लौटना नहीं पड़ता, (अनावृत्ति) और जिन्हें स्वर्ग से लौट कर जन्न लेना पड़ता है (आवृत्ति), उनके बीच के समय का और गति का भेद बतलाते हैं-] (२३) हे मरतनष्ठ! अव नुझे मैं वह काल बतलाता हूँ, किं जिस काल में (कम-योगी मरने पर (इस लोक में जन्मने के लिये) लौट नहीं आते, और (निस काल में मरने पर) लौट आते हैं। (२४) अग्नि, ज्योति अर्थात् ज्वाला, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः महीनों में मरे हुए ब्रह्मवेत्ता लोग ब्रह्म को पाते हैं (लौट कर नहीं आते)। (२५) (अप्ति) धुओं, रात्रि, कृष्णपन (और) दवि. सायन के महीनों में (मर हुआ कर्म-) चोगी चन्द्र के तेज में अर्थात् लोक में जा कर (पुण्यांश घटने पर लौर लाता है। (२६) इस प्रकार जगत् की शुद्ध और कृष्ण यात् मनशमय और अन्धकारमय दो शाश्वत गतियाँ यानी स्थिर मार्ग हैं। एक मार्ग से जाने पर लौटना नहीं पड़ता और दूसरे से फिर लौटना पड़ता है। [उपनिपड़ों में इन दोनों गतियों को देवयान (शुल) और पितृयाण (कृप्प), अथवां अर्चिर बादि मार्ग और धून आदि मार्ग कहा है उया ऋग्वर