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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी -- ८ मध्याय, ७३७ IS नैते सती पार्थ जानन् योगी मुलाति कश्चन । तस्मात्सर्वेषु कालेपु योगयुक्तो भवार्जुन ॥२७॥ घेदेषु यशेषु तपासु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् । गत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाधम् ॥२८॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतामु उपनिपत्र मागविद्यायो योगशाले श्रीकृष्णार्जुन- संवादे अक्षरनायोगो नाम मटमोऽध्यायः ॥ ८॥ में भी इन मागों का उलेख है। मरे हुए मनुष्य की देश को अग्नि में जला देने पर, अग्नि से ही इन मार्गों का प्रारम्भ हो जाता है, प्रताप पचीसवें श्लोक में 'माधि पद का पहले श्लोक से अध्यादार फर जेना चाहिये। पचीस श्लोक का हेतु यही पितलाना है, कि प्रथम श्लोकों में वर्णित मार्ग में और दूसरे मार्ग में कहाँ भेद होता इसी से जामि' शब्द की पुनराति इसमें नहीं की गई । गीतारहस्य के दसवें प्रकरगा के अन्त (पृ. २९५ -२६८) में इस सम्बन्ध की भधिक याते में उनसे उछि- खित श्लोक का भावार्थ खुल जायेगा। अव पतनाते हैं, कि इन दोनों मार्गों का ताप जान लेने से क्या फल मिलता है- (२७) हे पार्थ ! इन दोनों सृती प्रर्थात् मागी को (तस्वतः) जाननेवाला कोई भी (फर्म-)योगी मोह में नहीं फंसता; मतएव हे अर्जुन! तू सदा सर्वदा (फर्म-)योगयुक्त हो । (२८) इसे (उक तस्त्र यत) जान लेने से घेद, यज्ञ, तप और दान में जो पुराय- फल यतलाया है, (कर्म)योगी उस सय को छोड़ जाता है और उसके परे माणस्थान को पा लेता है। [जिस मनुष्य ने देवयान और पितृयाण दोनों मागों के तस्य को जान लिया 1-अर्थात यह ज्ञात कर लिया कि देवयान मार्ग से मोक्ष मिल जाने पर फिर पुनर्जन्म नहीं मिलता और पित्र्यागण मार्ग स्वर्गप्रद हो सो भी मोहमद नहीं है- यह इनमें से अपने सणे कल्याणा के मार्ग को ही स्वीकार करेगा, यह मोह से निस श्रेणी के मार्ग को स्वीकार न करेगा। इसी बात को लक्ष्य कर पहले श्लोक में इन दोनों सूती अर्थात मागी को (सावत:) जाननेवाला ये शब्द आये हैं। इन श्लोकों का भावार्थ यों है:-कर्मयोगी जानता है, कि देवयान और पितृयाण दोनों मागों में से कौन मार्ग कहाँ जाता है तथा इसी से जो मार्ग उत्तम है, उसे ही यह स्वभावतः स्वीकार परता है, एवं स्वर्ग के आवागमन से बच कर इससे परे मोक्ष-पद फी माप्ति कर लेता है । और २७ चे श्लोक में तदनुसार व्यवहार करने का अर्जुन को उपदेश भी किया गया है।] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद में प्रभाविद्या- तर्गत योग-अर्थात कर्मयोग-शासविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में अपरायोग नामक पाठवाँ अध्याय समाह तुमा । गी.र. ९३