७३८ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । नवमोऽध्यायः। श्रीभगवानुवाच । इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । झानं विज्ञानसहितं यज्दात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१॥ राजविद्या राजगुहां पवित्रमिदमुत्तमम् प्रत्यक्षावगमं धर्म्य सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥२॥ अभधानाः पुरुपा धर्मस्यास्य परंतप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्मनि ॥३॥ नवाँ अध्याय । [सातवें अध्याय में ज्ञान-विज्ञान का निरूपम यह दिखाने के लिये किया गया ई, कि कर्मयोग का आचरण करनेवाले पुरुष को परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान हो कर मन की शान्ति प्रयदा मुन्न अवस्था कैसे प्राप्त होती है। अवर और अव्यक्त पुरुष का स्वरूप भी बतज्ञा दिया गया है। पित्रले यध्याय में कहा गया है कि अन्तकाल में भी उसी स्वरूप को मन में स्थिर बनाये रखने के लिये पातंजल योग से समाधि लगा कर, अन्त में कार की उपासना की जाये। परन्तु पहले तो अक्षरमा का ज्ञान होना ही कठिन है और फिर उसमें भी समाधि की आवश्यकता होने से साधारण लोगों को यह मार्ग ही छोड़ देना पड़ेगा! इस कठिनाई पर ध्यान देकर अब मग- वान् ऐसा राजमार्ग बसलाते हैं कि जिससे सब लोगों को परमेश्वर का ज्ञान सुलम हो जाये । इसी को भक्तिमार्ग कहते हैं। गीतारहस्य के तेरहवें प्रकरण में हमने इसका विस्तारसहित विवेचन किया है। इस मार्ग में परमेश्वर का स्वरूप प्रेमगम्य और व्यक्त अर्थात् प्रत्यक्ष जानने योग्य रहता है। इसी व्यक्त स्वरूप का विस्तृत निरू- पण नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें अध्यायों में किया गया है। तथापि स्मरण रहे कि यह भक्तिमार्ग भी स्वतन्त्र नहीं ई-कर्मयोग की सिद्धि के लिये सातवें भघ्याय में जिस ज्ञान-विज्ञान का प्रारम किया गया है, उसी का यह भाग है । और इस अध्याय का प्रारम्भ मी पिछले ज्ञान-विज्ञान के प्रकी रष्टि से ही किया गया है। श्रीभगवान् ने कहा-(१) भय तू दोपदी नहीं है, इसलिये गुह से भी गुह्य विज्ञान सहित ज्ञान तुझे बतलाता हूँ कि जिसके जान लेने से पाप से मुक होगा। (२) यह (ज्ञान) समस्त गुह्यों में राजा अर्थात् श्रेष्ठ यह राजविद्या अर्थात् सब विद्याओं में श्रेष्ठ, पवित्र, त्तम, और प्रत्यक्ष वोध देनेवाला है। यह आचरण करने में सुखकारक, भव्यय और धर्य है । (३) है परन्तर! इस पर श्रद्धा न रखनेवाले पुरुष मुझे नहीं पाते; वै मृत्युयुक्त संसार के मार्ग में लौट हैं; (अर्थात उन्हें भोव नहीं मिलता)।
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