पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७९

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७४० गीतारहस्य जया कर्मयोगशास्त्र IF सर्वभूतानि कातय प्रकृति यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षय पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ७॥ प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्समवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ८॥ न च मां तानि कर्माणि निवघ्नन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९॥ मयाध्यक्षण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौंतेय जगद्विपरिवर्तते ।। १०॥ हो चुका है। परमेश्वर को यह योग ' अत्यन्त सुलभ है, किंबहुना यह परमेवर का दास ही है, इसलिये परमेश्वर को योगेश्वर (गी. १८.७५) कहते हैं। भय बतलाते हैं, कि इस योग-सामय से जगत् की उत्पत्ति और नाश कैसे हुआ करते हैं-] (७) हे कौन्तेय ! कल्य के अन्त में सब भूत मेरो प्रकृति में मा मिलते हैं और कल्प के भारम्म में (ब्रह्मा के दिन के प्रारम्म में) टनको मैं ही फिर निर्माण करता हूँ। (6) मैं अपनी प्रकृति को हाथ में ले कर, (अपने अपने कर्मों से बंधे हुए) भूतों के इस समूचे समुदाय को पुनः पुनः निर्माण करता हूं, कि जो (स) प्रकृति के काबू में रहने से अवश अर्थात परतन्त्र है। (६)(परन्तु) हे धनञ्जय ! इस (इष्टि निर्माण करने के काम में मेरी आसक्ति नहीं है, मैं उदासीन सा रहता हूँ, इस कारण मुझे वे कर्म बन्धक नहीं होते। (१०) में अध्यक्ष हो कर प्रकृति से सब चराचर सृष्टि उत्पन्न करवाता हूँ। हे कौन्तेय! इस कारण जगत् का यह बनना. दिगड़ना हुआ करता है। [पिछले अध्याय में बतला आये हैं, कि ब्रह्मदेव के दिन का (कल्प का) प्रारम्भ होते ही अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त सृष्टि बनने लगती है (८.१८)। यहाँ इसी का अधिक बुलासा किया है, कि परमेश्वर प्रत्येक के कमांनुसार टसे भला- पुरा जन्म देता है, अतएव वह स्वयं इन कमों से पलित है। शास्त्रीय प्रति. पादन में ये सभी तत्व एक ही स्थान में बतला दिये जाते है। परन्तु गीता की पद्दति संवादात्मक है, इस कारण प्रसङ्ग के अनुसार एक विषय योड़ा सा यहाँ और थोड़ा सा वहीं इस प्रकार वर्णित है। कुछ लोगों की दलील है कि दसवें लोक में जगद्विपरिवतते पद विवत-वाद को सूचित करते हैं। परन्तु जगद का बनना-विगड़ना हुआ करता है, अर्थात् 'व्यक्त का अध्यक्त और फिर मन्यत {का व्यक्त होता रहता है, हम नहीं समझते कि इसकी अपेक्षा 'विपरिवर्वते' पढ़ का कुछ अधिक अर्थ हो सकता है। और शारमाप्य में भी और कोई विशेष अर्थ नहीं बतलाया गया है। गीतारहस्य के दसवें प्रकरण में विवेचन किया गया है, कि मनुष्य कर्म से भवश कैसे होता है।]