गीता, अनुवाद और टिप्पणी - १ अध्याय। ७४१ I अवजानन्ति मां मूढा मानुपी तनुमाथितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ १९ ॥ मोधाशा मोधकर्माणो मोघशाना विचेतसः। राक्षसीमासुरी चैव प्रकात मोहिनी श्रिताः ॥१२॥ $$ महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ १३॥ सततं फीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढवताः । नमस्यंतश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥१४॥ शानयक्षेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥१५॥ $$ अहं कतुरहं यज्ञ स्वधाहमहमौषधम् । (११) मूढ़ लोग मेरे परम स्वरूप को नहीं जानते कि जो सब भूतों का महान् ईश्वर है; वे मुझे मानव-तनुधारी समझ कर मेरी अवहेलना करते हैं। (१२) उनकी आशा व्यर्थ, कर्म फिजूल, ज्ञान निरर्थक और चित्त भ्रष्ट है, वे मोहा- स्मक राचसी और आसुरी स्वभाव का प्राश्रय किये रहते हैं। [यह मासुरी स्वभाव का वर्णन है। अब देवी स्वभाव का वर्णन करते हैं-] (१३) परन्तु हे पार्थ ! दैवी प्रकृति का प्राश्रय करनेवाले महात्मा लोग सब भूतों के अन्यय प्रादिस्थान मुझको पहचान कर अनन्य भाव से मेरा मजन करते हैं। (१४) पौर यत्नशील, वत, एवं नित्य योग-युक्त हो सदा मेरा कीर्तन और वन्दना करते हुए भक्ति से मेरी उपासना किया करते हैं। (१५) ऐसे ही और कुछ लोग एकत्व से अर्थात प्रभेदभाव से, पृथक्त्व से अर्थात् भेदभाव से या अनेक भाँति के ज्ञान-यज्ञ से यजन कर मेरी-जो सर्वतोमुख हूँ -उपासना किया करते हैं। संसार में पाये जानेवाले देवी और राक्षसी स्वभावों के पुरुषों का यहाँ जो संक्षिप्त वर्णन है, उसका विस्तार आगे सोलहवें अध्याय में किया गया है। पहले बतना ही आये हैं, कि ज्ञान-यज्ञ का अर्थ “ परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान से ही प्राकलन करके, उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लेना" (गी. ४, ३३ की टिप्पणी देखो)। किन्तु परमेश्वर का यह ज्ञान भी द्वैत-अद्वैत आदि भेदों से अनेक प्रकार का हो सकता है। इस कारण ज्ञान-यज्ञ भी मिन-भिन्न प्रकार से हो सकते हैं। इस प्रकार यद्यपि ज्ञान-यज्ञ अनेक हों, तो भी पन्द्रहवें श्लोक का तात्पर्य यह है, कि परमेश्वर के विश्वतोमुख होने के कारण, ये सब यज्ञ उसे ही पहुंचते हैं। एकत्व, पृथक्त्व' प्रादि पदों से प्रगट है, कि द्वैत-अद्वैत विशिष्टा- द्वैत आदि सम्प्रदाय यद्यपि अर्वाचीन हैं, तथापि ये कल्पनाएँ प्राचीन हैं। इस श्लोक में परमेश्वर का एकत्व और पृथक्त्व बतलाया गया है, अब उसी का अधिक निरूपण कर बतलाते हैं कि पृथक्त्व में एकत्व क्या है-]
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७८०
दिखावट