गीता, अनुवाद और टिप्पणी- अध्याय । ७४३ विद्या मां सोमपाः पूतपापा यहरिम्वा स्वर्गति प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेंद्रलोकमनन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।२०॥ ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं अयोधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ २१ ॥ अनन्यातियन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। चौदहवें अध्याय में पिस्तार सहित पणन किया है कि गुगानय विभाग से सृष्टि में नानात्य उत्पा होता है। इस रष्टि से २१ चे श्लोक के मन और असत् पदों का सम से मना 'भार पुरा' यह प्रम किया जा सकेगा और प्राने गीता (१७.२६ - २८) में एक बार ऐसा भषं किया भी गया है। परन्तु जान पढ़ता है कि इन शब्दों के सत-अविनाशी भार असत्-विनाशी या नाशवान् ये जो सामान्य अर्थ है (गी. २. १६), वे ही इस धान में अभीष्ट होंगे; और मृत्यु और अमृत के समान सन् और असत् ' द्वन्द्वात्मक शब्द अरग्वेद के नासदीय सूक से सूझ पट्टे होंगे । तथापि दोनों में भेद है. नासदीय सूक्त में 'सत्' शब्द का उपयोग दृश्य सृष्टि के लिये किया गया है और गीता 'सन् ' शब्द का उपयोग परयास के लिये फरती है एवं पश्य सृष्टि को अप्लान कहती है ( देखो गीतार. पृ. २४३ - २४६) । किन्तु इस प्रकार परिभाषा का भेद हो तो भी 'सत्' और 'असत्' दोनों शब्दों की एक साथ योजना से भगट हो जाता है कि इनमें एश्य सृष्टि तौर परमहा दोनों का एकम समावेश होता है। अतः यह मावार्य भी निकाला या सकेगा कि परिभाषा के भेद से किसी को भी सत्' और 'सत्' कहा जाय, किन्तु यह दिसलाने के लिये फि दोनों परमेश्वर के ही रूप हैं. भगवान् ने 'सत्' और असत्' शब्दों की व्याख्या न दे कर सिर्फ यह वर्णन कर दिया है कि 'सत्' और सत्' मैं ही हूँ (दस्रो गी. ११.३७ और १३. १२) । इस प्रकार यद्यपि परमे. वर के रूप अनेक है तथापि मप यतलाते हैं कि उनकी एकत्व से उपासना करने और अनेकत्व से उपासना करने में भेद है-] (२०) जो गैविध अर्थात् प्रक, यशु और साम इन तीन वेदों के कर्म करनेवाले, सोम पीनेवाले अर्थात् सोमपाजी, तथा निष्पाप (पुरुष) यज्ञ से मेरी पूजा करके स्वर्गलोक प्राप्ति की इच्छा करते हैं, ये इन्द्र के पुण्यलोक में पहुँच कर स्वर्ग में देव- ताओं के अनेक दिल्य भोग भोगते हैं। (२१) और उस विशाल स्वर्गलोक का उप- भोग करके, पुण्य का क्षय हो जाने पर चे (फिर जन्म लेकर) मृत्युलोक में आते हैं। इस प्रकार प्रयोधर्म अर्थात तीनों वेदों के यज्ञ-याग आदि श्रोत धर्म के पालनेवायो और फाम्य उपभोग की इच्छा करनेवाले लोगों को (स्वर्ग का) मापागमन प्राप्त होता है। [ यह सिद्धान्त पहले कई धार पा चुका है, कि यज्ञ-याग सादि धर्म से या नाना प्रकार के देवताओं की आराधना से कुछ समय तक स्वर्गवास मिल
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