पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७८३

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७४४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ २२ ॥ s येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौंतेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। २३ ॥ अहं हि सर्वयानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते ॥ २४॥ यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः। माय तो भी पुण्यांश चुक जाने पर उन्हें फिर जन्म ले करके भूलोक में माना पड़ता है (गी. २०.४२-४४, ४.३४, ६. ४१, ७. २३, ८. १६ और २५) । परन्तु मोद में यह मंझट नहीं है, वह नित्य ई अर्थात् एक बार परमेश्वर को पा लेने पर फिर जन्म-मरण के चक्कर में नहीं आना पड़ता । महामारत (वन. २६०) में स्वर्गसुख कालो वर्णन है, वह भी ऐसा ही है। परन्तु यज्ञ-याग भादि से पर्जन्य प्रमृति की उत्पत्ति होती है, अतएव शक्षा होती है कि इनको छोड़ देने से इस जगत का योग-क्षेम अर्थात् निर्वाह कैसे होगा (दखोगी. २.४५ की टिप्पणी और गीतार. पृ. २६३) । इसलिये भव ऊपर के श्लोकों से मिला कर ही इसका उत्तर देते हैं- (२२)जो मनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिन्तन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य-योगयुक्क पुरुषों का योग-चम मैं किया करता हूँ। } [जो वस्तु मिली नहीं है, उसको जुटाने का नाम है योग, और मिली हुई वस्तु की रक्षा करना है तैमः शाश्वतकोश में भी (देखो १०० और २९२ श्लोक) योग-क्षेम की ऐसी ही व्याख्या है और उसका पूरा अर्थ 'सांसारिक नित्य निर्वाह है। गीतारहस्य के बारहवें प्रकरण (पृ. ३८३ -३८४) में इसका विचार किया गया है कि कर्मयोग-मार्ग में इस श्लोक का क्या अर्थ होता है। इसी प्रकार नारा- यणीय धर्म (ममा. शां.३४८.७२) में भी वर्णन है कि- मनीषिणो हि ये केचित् यतयो मोनर्मिणः। ते विच्छिन्नतृष्णानां योगक्षेमवहो हरिः॥ ये पुरुष एकान्तमक्क हाँ तो भी प्रवृत्तिमार्ग के हैं अर्थात् निष्काम-धुदि से कर्म किया करते हैं। अब बतलाते हैं, कि परमेश्वर की बहुत्व से सेवा- करनेवानों की अन्त में कौन गति होती है-1 (२३) हे कौन्तेय ! श्रद्धायुक्त होकर अन्य देवताओं के भक्त बन करके जो लोग यजन करते हैं, वे मी विधिपूर्वक न हो, तो भी (पर्याय से) मेरा ही यनन करते हैं। (२१) क्योंकि सष यज्ञों का भोका और स्वामी मैं ही हूँ। किन्तु वे तत्त्वतः मुझेनहीं नानते, इसलिये वे लोग गिर जाया करते हैं। 1 [गीतारहस्य के तेरहवें प्रकरण (पृ.४१६-४२३) में यह विवेचन है, कि इन दोनों लोकों के सिदान्त का महत्त्व क्या है । वैदिकधर्म में यह तत्व