गीता, अनुवाद गौर टिप्पणी- अध्याय । ७४५ भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मधाजिनोऽपि माम् ॥२५॥ बहुत पुराने समय से चला रहा है, कि कोई भी देवता हो, वह भगवान् का ही एक स्वरूप है । उदाहरणार्थ, रवंद में ही कहा है कि " एक सद्विमा बहुधा चिदंत्यनिं यमं मातरिश्वानमाहुः " (र. १. १६४.५६)-परमधर एक है. परन्तु पिरिडत लोग उसी को अप्नि, यम, मातरिश्वा (वायु) कहा करते हैं और इसी के अनुसार प्रागे के अध्याय में परमेश्वर के एक होने पर भी उसकी अनेक विभू. तियों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार महाभारत के अन्तर्गत नारायणीयो. पाख्यान में, चार प्रकार के भक्तों में कर्म करनेवाले एकान्तिक भक्त का श्रेष्ठ (गी. १७. १६ की टिप्पणी देखो) यतला कर कहा है- ब्रह्माणं शितिकंठं च याय्याच्या देवताः स्मृताः। प्रयुद्धचर्याः सेवन्तो मामेवैष्यन्ति यत्परम् ॥ !" प्रामा को, शिय को, अथवा और दूसरे देवताओं को भजनेवाले साधु पुरुष भी मुझमें ही भा मिलते हैं" (मभा. शा. ३४१. ३५), और गीता के वक्त श्लोकों {का अनुवाद भागवतपुराण में भी किया गया है (देखो भाग, १०. पू. १०. 1८-१०)। इसी प्रकार नारायणीयोपाख्यान में फिर भी कहा है- ये यजन्ति पितृन देवान् गुरूंश्चैवातिर्थीस्तथा । गाचैव द्विजमुख्यांश्च पृषिवों मातरं तथा ॥ कर्मणा मनसा वाचा विष्णुमेघ यजन्ति ते । देव, पितर, गुरु, अतिथि, बामण चौर गौ प्रभृति की सेवा करनेवाले पर्याय से विष्णु का हो यजन करते है" (मभा. शां. ३४५. २६, २७)। इस प्रकार भागवतधर्म के स्पष्ट कहने पर भी, कि भकि को मुख्य मानो, देवतारूप प्रतीक गौण है, यद्यपि विधिभेद हो तथापि उपासना तो एक ही परमेश्वर की होती है। यह बड़े आश्चर्य की यात है कि भागवतधर्मवाले शैवों से झगड़े किया करते हैं! यद्यपि यह सत्य है कि शिसी भी देवता की उपासना क्यों न करें, पर वह पहुँ- चिती भगवान् को ही है तथापि यह ज्ञान न होने से कि सभी देवता एक मोक्ष की राह छूट जाती है और भिन्न भिन्न देवताओं के उपासकों को, उनकी भावना के अनुसार भगवान ही मिन भिन्न फल देते हैं- (२५) देवताओं का प्रत करनेवाले देवताओं के पास, पितरों का व्रत करनेवाले पितरों के पास, (भिन्न भिन्न) भूतों को पूजनेवाले (उन) भूतों के पास जाते हैं। और मेरा यजन करनेवाले मेरे पास आते हैं। 1 [सारांश, यद्यपि एक ही परमेश्वर सर्वत समाया हुधा है तथापि उपासना का फल, प्रत्येक के भाव के अनुरूप न्यून अधिक योग्यता का, मिला करता है। फिर भी इस पूर्व कथन को भूल न जाना चाहिये, कि यह फल-दान का कार्य वेता नहीं करते-परमेश्वर ही करता है (गी. ७. २०-२३) । अपर २४ व मी.१.१४. .
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