पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७८८

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७४६. गीता, मनुवाद और टिप्पणी- अध्याय । IS मन्मना भव मद्भको मद्याजो मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युवेरमात्मानं मत्परायणः ॥ ३४ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतामु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यार्या चोगशान श्रीकृन्गार्जुन- संवाद राजविद्याराजगुपयांगो नाम नबमोऽध्यायः॥९॥ जाति के लोगों को भी भगवजाति से सिद्धि मिलती है। सी, वैश्य और शूद्र फुध इल वर्ग के नहीं हैं। उन्हे मोक्ष मिलने में इतनी ही बाधा है कि वे चैद सुनने के अधिकारी नहीं हैं। इसी से भागवतपुराण में कहा है कि- लीशुदद्विजवन्धूनां त्रयीन अतिगोचरा। फर्मयपि मूढाना ग्रंय एवं मवेदिह। इति भारतमात्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥ "रियों शूनी प्रथया कलियुग के नामधारी घासणों के कानों में वेद नहीं पहुँ- चता, इस कारण उन्हें भूसंता से बचाने के लिये प्यास मुनि ने कृपालु होकर उनके फयागापं महाभारत की अर्थात् गीता की भी रचना की "(भाग. १. १४.२५) भगवद्गीता फे ये शोक कुत्र पाठभेद से अनुगीता में भी पाये जाते हैं (ममा. अध, १८.६१,६२)। जाति का, वर्गा का, सी-पुरुप आदि का, अथवा काले-गोरे रम प्रभृति का कोई भी भेद न रख कर सब को एक ही से सन्नति देने- वाले भगवनति के इस राजमार्ग का ठीक बड़प्पन इस देश की और विशेषतः महाराष्ट्र की सन्तमण्डली के इतिहास से किसी को भी ज्ञात हो सकेगा। उल्लि- खित लोक का अधिक खुलासा गीतारहस्य के पृ. ४३७-४४० में देखो। इस प्रकार के धर्म का प्राचरण करने के विषय में, ३३ वें श्लोक के उत्तरार्द्ध में अर्जुन को जो उपदेश किया गया है, अगले श्लोक में यही चल रहा है।] (१४) मुझमे मग लगा, मेरा भक्त हो, मेरी पूजा कर और मुझे नमस्कार कर । इस प्रकार मपरायण हो कर, योग का अभ्यास करने से मुझे ही पायेगा। । [वास्तव में इस उपदेश का प्रारम्भ ३३ वें श्लोक में ही हो गया है । ३३ वें श्लोक में 'अनि.य' पद अध्यात्मशास्त्र के इस सिद्धान्त के अनुसार पाया है कि प्रकृति का फैलाव अथवा नाम-रूपात्मक दृश्य-सृष्टि प्रनित्य है और एक परमात्मा ही निय है। और असुख' पद में इस सिद्धान्त का अनुवाद है कि इस संसार में सुख की अपेक्षा दुःख अधिक हैं। तथापि यह वर्णन अध्यात्म का नहीं है, भक्तिमार्ग का है । अतएव भगवान् ने परमा अथवा परमात्मा शब्द का प्रयोग न करके मुझे भज, मुझमें मन लगा, मुझे नमस्कार कर,' ऐसे व्यक्तस्वरूप के दर्शनवाले प्रथम पुरुप का निर्देश किया है । भगवान् का अन्तिम कथन है, कि, हे अर्जुन ! इस प्रकार भक्ति करके मत्परायण होता हुआ योग भर्याद