पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मातृ 55 गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । वह अपने घर जाने लगता तय प्रत्येक गुरु का यही उपदेश होता था कि " देवो भव पितृदेवो भव । प्राचार्यदेवो भव" (ते. १.११.१ और २)। महाभारत के ब्राह्मणा-याध याख्यान का तात्रयं भी यही है (चन.व.२१३)। परंतु इस धर्म में भी कभी कभी अकल्पित बाधा खड़ी हो जाती है। देखिये,मनुजी कहते १२.३४५)- उपाध्यायान्दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता । सहलं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥ दस उपाध्यायों से प्राचार्य, और सौ प्राचार्यों से पिता, एवं हजार पिताओं से माता, का गौरव अधिक है। इतना होने पर भी यह कया प्रसिद्ध है (वन. १४६.४ ) कि परशुराम की माता ने कुछ सपराध किया था, इसलिये उसने अपने पिता की थाना से अपनी माता को मार डाला। शान्तिपर्व (२६५) के चिरका. रिकोपाख्यान में अनेक साधक-बाधक प्रमाणों सहित इस बात का विस्तृत विवेचन किया गया है कि पिता की आज्ञा से माता का वध करना श्रेयस्कर या पिता की आज्ञा का भंग करना श्रेयस्कर है। इससे सट जाना जाता है कि महा. भारत के समय ऐसे सूक्ष्म प्रसंगों की, नीतिशान की दृष्टि से, चर्चा करने की पद्धति जारी थी। यह बात छोटों से ले कर बड़ों तक सब लोगों को मालूम है कि पिता की प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिये, पिता की भाज्ञा से, रामचंद्र ने चौदह वर्षे वनवास किया पत्नु माता के संबंध में जो न्याय अपर कहा गया है वही पिता के संबंध में भी उपयुक्त होने का समय कभी कमी आ सकता है।जैसे मान लीजिये, कोई लड़का अपने पराक्रम से राजा हो गया और उसका पिता अपराधी हो कर इन्साफ़ के लिये उसके सामने लाया गया। इस अवस्या में वह लड़का क्या करे?- राजा के नाते से अपने अपराधी पिता को दंड दे या उसको अपना पिता समझ कर छोड़ दे? मनुजी कहते हैं:- पिताचार्यः सुहन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः । नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्म न तिष्ठति ।। पिता, प्राचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुन और पुरोहित इनमें से कोई भी यदि अपने धर्म के अनुसार न चले वो वह राजा के लिये सदराय नहीं हो सकता अर्थात् राजा उसको उचित दण्ड दे" (मनु.८.३३५६ ममा. शां. १२१.६०)। इस जगह पुत्रधर्म की योग्यता ले राजधाने की योग्यता अधिक है। इस बात का उदाहरण (ममा. पं. १०७ रामा. १.३८ में) यह है कि सूर्यवंश के महापरा. क्रमी सगर राजा ने असमंजस नामक अपने लड़के को देश से निकाल दिया था, क्योंकि यह दुराचरणी था और प्रजा को दुःख दिया करता था। मनुस्मृति में भी यह कया है कि आंगिरस नामक एक पि को छोटी अवस्था ही में बहुत ज्ञान हो गया था इसलिये उसके काका-मामा नादि चढ़े बूढे नातेदार उसके पास अध्ययन करने लग गये थे । एक दिन पाठ पढ़ाते पढ़ाते आंगिरस ने कहा " पुत्रका "